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समाधि के दीप से / महादेवी वर्मा

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जिन नयनों की विपुल नीलिमा
में मिलता नभ का आभास,
जिनका सीमित उर करता था
सीमाहीनों का उपहास;

जिस मानस में डूब गये
कितनी करुणा कितने तूफान!
लोट रहा है आज धूल में
उन मतवालों का अभिमान।

जिन अधरों की मन्द हँसी थी
नव अरुणोदय का उपमान,
किया दैव ने जिन प्राणों का
केवल सुषमा से निर्माण;

तुहिन बिन्दु सा, मंजु सुमन सा
जिन का जीवन था सुकुमार,
दिया उन्हें भी निठुर काल ने
पाषाणों का सयनागार।

कन कन में बिखरी सोती है
अब उनके जीवन की प्यास,
जगा न दे हे दीप! कहीं
उनको तेरा यह क्षीण प्रकाश!