समानता सीखें तो हवाओं से / महेश सन्तोषी
कोई समानता सीखे, तो हवाओं से!
हमी बन्द कर लेते हैं घरों की खिड़की, दरवाजे,
हवाएँ तो हम तक आती हैं एक ही भाव से
एक से प्रवाहों से,
फिर भी हम कैसे अछूते रहे?
ऐसे निष्पाप, प्रवाहों से!
कोई समानता सीखे, तो पहाड़ों से...!
रास्ते सर पर से जाएँ,
या फिर पेट के दो पाट, कर जाएँ,
अबोली रहती हैं इन मूक पहाड़ों की व्यथाएँ,
इनके प्रारब्ध में ही बँधी हैं,
स्थिरताएँ, शून्यताएँ,
कोई दर्शनीयता सीखे तो वृक्षों से, घने वनों से!
हमारी आँखों से होकर, प्राणों में झाँकती,
ये आत्मा तक को हर्षाती हरियाली, हवाओं में गुँथी,
बाँसुरियों की ध्वनियाँ, राग-रागनियाँ, सत्यम स्वर वाली,
एक शाश्वत जीवन दर्शन का सजीव दर्पण है
हर हिलता पत्ता, हर हिलती डाली!
कोई समानता सीखे, तो हवाओं से!
कोई सहनशीलता सीखे तो पहाड़ों से...!
कोई समानता सीखे, तो हवाओं से!