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समीर / उंगारेत्ती

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»  समीर


आकाश को सुनते हुए

भोर की तलवार

और पहाड़ी

चढ़ती हुई उसकी गोद में

अभ्यस्त समस्वरता में

मैं लौट आता हूँ


क्लान्त पेड़ों का झुरमुट

पकड़े है उस की ढलान


शाखों के बीच से मैं

देखता हूँ उड़ानों को फिर जनमते हुए ।