समुद्र-मंथन / शरद बिलौरे
मैं समुद्र-मंथन के समय
देवताओं की पंक्ति में था
लेकिन बँटवारे के वक़्त
मुझे राक्षस ठहरा दिया गया और मैंने देखा
कि इस सबकी जड़ एक अमृत-कलश है,
जिसमें देवताओं ने
राक्षसों को मूर्ख बनाने के लिए
शराब नार रखी है।
मैं वेष बदल कर देवताओं की लाईन में जा बैठा
मगर अफ़सोस अमृत-पान करते ही
मेरा सर धड़ से अलग कर दिया गया।
और यह उसी अमृत का असर है
कि मैं दोहरी ज़िन्दगी जी रहा हूँ।
दो अधूरी ज़िन्दगी
राहु और केतु की ज़िन्दगी
जहाँ सिर हाथों के अभाव में
अपने आँसू भी नहीं पोंछ सकता, तो धड़
अपना दुख प्रकट करने को रो भी नहीं सकता।
दिन-रात कुछ लोग मुझ पर हँसते हैं
ताना मारते हैं
तब मैं उन्हें जा दबोचता हूँ।
फिर सारा संसार
ग्रहण के नाम पर कलंक कह कर
मुझे ग़ाली देता है।
तब मुझे अपनी भूल का अहसास होता है
क्योंकि समुद्र-मंथन के पूर्व भी
मैं राक्षस ही था
और इस बँटवारे में राक्षसों ने
देवताओं को धोखा दिया था
मेरी ग़लती थी कि मैं
बहुत पहले से वेष बदल कर
देवताओं की लाईन में जा खड़ा हुआ था।