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समुद्र की दिशा में / चन्द्रकान्त देवताले

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मैं समुद्र देखने के लिए दौड़ने लगा
मेरे फेफड़ों में दरख्तों की सरसराहट थी
दूर आकाश और ख़जूर के पेड़ों के बीच
कितना पानी जैसा झलमला रहा था
शायद वह पानी नहीं पौ फटने की रोशनी थी
समुद्र अभी दूर था.

एक अजनबी गाँव में जागकर
समुद्र के लिए मैं
धान के खेतों के बीच था
तभी रास्ते में
एक नाला कीचड़ भरा-सा सामने
आ अड़ा
और एक आदमी नंगे पैर जो लँगोट पहने हुए था
अपने पचास के बदन के साथ
कीचड़ में फदफद करता
हँसिया हाथ में लिए
पार हो गया.

मैं अपने जूतों और पैंट की तरफ़ देखते हुए
बहुत देर तक खड़ा रहा,
तब तक वह आदमी जंगल के साथ
समुद्र के निकट पहुँच रहा था
उसके हँसिए पर चमकती हुई धूप
टकरा रही थी
मेरी पुतली से.

और अब मेरी पीठ थी समुद्र की तरफ़
मैं वापस लौट रहा था सोचते हुए
इस वक़्त उसी आदमी का है समुद्र और जंगल
पर मेरी आँखों की चमक भी तो उसकी है
चमक के इस ख्याल के साथ
मैं फिर समुद्र की दिशा में मुड़ा
और इस बार मेरे हाथ
जूते के तस्मे खोलते हुए
थिरकने लगे.