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समुद्र / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
Kavita Kosh से
मन की तरह गहरा
इच्छाओं-सा लहराता
आशाओं-सा चमकता
विवशताओं-सा लौटता
आरोह-अवरोह
उद्वेलन- आवर्त
कशमकश कभी तेज़ कभी मंद
अथाह, अछोर, अनन्त
अपने ही भार से थरथराता
चट्टानों पर फन पटकता, हाँफता
फुफकारता, दहाड़ता
समेट लेत है अपने को
अभिशप्त
अकेला
जैसे आदमी ।