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समुन्दर: चार / शीन काफ़ निज़ाम
Kavita Kosh से
समुन्दर
तुम्हारे सीने पर
बिखरती
किरण किरण
सुबह है
या सफीहों<ref>आसमानी किताबों </ref> के
ओराक़े-परीशां<ref>बिखरे हुए पृष्ठ </ref>
चमचमाते चेहरे पर
शिकन-दर-शिकन
गुंजलक<ref>अस्पष्ट</ref> ख़ुतूत
तज्रिब्रों की तमाज़त<ref>गर्मी </ref> का तिलिस्म
या तुम्हारी शिकस्तखुर्दा ख्वाहिशों की दास्ताँ के
हाँफते जाते हुरूफ़<ref>हर्फ़ का बहुवचन </ref>
समुन्दर
शुआयें<ref>किरणें </ref> तुम से मिल कर हो गई हैं
पाश-पाश<ref>टुकड़े </ref>
या इन्हें जम कर के ख़ुद में
तुम ने ही
यूँ कर दिया है
मुंक़सिम<ref>बाँटना</ref>
ये तुम्हारे रंग ही के रूप हैं
या रूप के हैं रंग इतने
कौन जाने
तुम तो कुछ कहते नहीं हो
क्या समुन्दर होना कुछ कहना नहीं है
शब्दार्थ
<references/>