भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समुन्दर: पांच / शीन काफ़ निज़ाम
Kavita Kosh से
समुन्दर
तुम अज़ल से गुनगुनाते जा रहे हो
मैं अज़ल से सुन रहा हूँ
एक ही नग्मा
एक सी ही बहार
लफ्ज़ भी वैसे के वैसे
आहंग का मद्दों जज़र तो वो नहीं है
जो अभी था
फिर ये कैसे हो कि
तुम अज़ल से गुनगुनाते
एक ही लय में
एक ही नग्मा
और अगर हो भी तो क्या
एक ही लय में
मुख्तलिफ़ नग्मों की है तख्लीक़ मुमकिन
एक ही नग्मा
अनगिनत आहंग में भी गुनगुना सकते हो तुम तो
अज़ उफ़क़ ता उफ़क़
फैली
एक समाअत सोचती है
क्या अज़ल से गुनगुनाये जा रहे हो
ये बताओ