सम्पर्ण / साधना जोशी
ऐ मेरी राह में चलने वाले पथिक,
तुमने अपनी थकान को तो ।
महसूस कर लिया, किन्तु तुम आये,
मैने भी तो तुम्हें छाया दी,
उसको क्यों भूल गये ।
मैं आखें बिछाये हर पल खाड़ा हूं,
तेरी राह में।
किन्तु तुम मेरी ओर तभी देखते हो,
जब तुम्हें धूप सताती है ।
तुम्हारे आने की खुषी में,
मैंें पंख हिलाता हूं ।
षितलता मिले तुम्हें,
और तुम आँख बन्द कर सो जाते हो ।
सन्-सन् लोरियाँ सुनाता हूं,
मुस्कराता हूं, झुमता हूं ।
खुस हूं कि तुम मेरे पास हो ।
कुछ क्षण ठहर कर तुम बेरुखी से,
उठकर चले जाते हो ।
मैं तुम्हारी एक नजर के लिए,
तड़पता हूं इस आषा में ।
कि सायद तुम,
मेरे भाव को समझ पाओगे ।
राह में नजरे गाड़ के बैठा रहता हूं,
किन्तु जब तुम लौटते हो ।
तो हाथ में कुल्हाड़ी लिए,
बेदर्दी से मुझ पर प्रहार करने को ।
मैं रोता हूं, बिलखता हूं,
डोल-डोल के याद दिलाता हूं ।
कि मैने तुम्हें छाया दी,
दो पल का सुकून दिया ।
तुम मुझे गिरा देते हो बेरहम बनकर ।
मेरा सम्पर्ण खत्म नहीं होता,
तुम्हारे लिए ।
इसलिए मैं खड़ा हूं,
तेरे द्वार की चौखट बनकर ।
जिससे हर पल गुजरते हो तुम,
अपनत्व के अहसास के बिना।
इसलिए मैं बताता हूँ,
कभी तुम से टकराकर ।
मेरे मुल्य का एहसास कर ,
कि मैं नहीं रहूंगा तो ।
कौन करेगा सुरक्षा तेरे,
घर की ।
मुझे पहचान मैं तेरे साथ खड़ा हूं,
हर पल एक माँ, एक पत्नी, एक बेटी तरह ।
खड़ा हूं तेरी राह में,
मुझे भी अपना लें ।
मत भूल मेरे सम्पर्ण को,
अपना ले मुझे भी ।
जिन्दगी भर के लिए,
मुझे भी तेरे साथ चलना है ।
क्योंकि
तेरे बिना मेरा भी कोई,
अस्तित्व नहीं है धरा पर ।