भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सम्भावनाओं के लिये / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खोजने होंगे हमें ही
अब
हमारे हल!

क्या करेंगी,
समय की संभावनाएँ अब
हाथ में
जुम्बिश नहीं है
गतिशीलता ना पाँव में
पढ़ रहे हैं
भाग्य की अन्धी लकीरें ही
बो रहे बहता पसीना
बरगदों की छाँव में
हम चले तो हैं
मगर
बैसाखियों के बल।

आँधियाँ जब भी चलीं
तृण-पत्र से उड़ते हुए
भीड़ में खोते रहे
अस्तित्व हम अपने
खँडहरों के
भूत प्रेतों को जगाते
वंचकों की याचनाओं में
हुये बलिदान सपने
जब मिले
तब
प्यार की
अभिमन्त्रणा के छल।

पोथियों के
छद्म आकर्षण भुलावे
हैं सहेजे ज्ञान में
अज्ञान के पोषक कथानक
संस्कारों के
विभाजक बीज मन्त्रों में
क्षरित होती आदमीयत
और खोते सत्य मानक
आज खोया है भले
पर
है हमारा कल।