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सम्मत / हम्मर लेहू तोहर देह / भावना
Kavita Kosh से
अई होली में
हम सब्भे गोरा मिल क
एगो नया सम्मत जराएब
जइमें
न होएत घास-फूस
न जरना के गठरी
न होएत-
ढोल-झाल के लाम-काम
हं! आऊ हम सब्भे गोरा मिल क
एगो नया सम्मत जराएब
जइमे जराएब हम
धनीक-गरीब के खाई
जात-धरम के नाम पर
रोज-रोज के खून-खराबा
चोरी-डाका/बलत्कार
सब्भे के एके साथ
जरा देब होलिका-दहन के नाम पर
एक्के साथ!
आऊर दूर से हम सब्भे गोरा
बइठ क देखब
ऊ निकलल सुन्नर तेज परकास के
जेकरा में हम सब नहा जाएब
रंग जाएब प्रेम के रंग में
जे होएत सच्चो के होली
ई समाज के खातिर
हमरा सब के खातिर।