रचनाकार: कुंजबिहारी दाश(1914-1993)
जन्मस्थान: रेंच शासन, पुरी
कविता संग्रह: छिन्नहस्ता(1940), प्रभाति(1943), पाषाण चरणे रक्त(1945), डुडुमा(1946), कलकल्लोल(1947), वाग्रा(1948), वीरश्री(1949), कंकालर लुह (1948), नव मालिका(1951), अपरान्हे केतोटि स्वर(1979), सेही मोर प्रेयसी नर्मदा, फसिल ओ फसल
दिन में समुद्र किनारे रात की रोशनी
झिलमिलाती बालू शैय्या पर हरती देह क्लांति
सुनी थी जब मैने समुद्री लहरों की गीत-ध्वनि
तब मिली थी मेरी आत्मा को परम शांति
विश्व की समस्त आत्माएं हर युग से
तरु, गिरि, मरु, नर, मर, देह त्यागकर
बन जाती है केवल एक ज्योति अनंत सूर्य की
एक रूप में विश्व स्रष्टा के छायाच्छादित पंक्तियाँ
ब्राह्मांड में विद्यमान जो वह शेर में, वही फिर मेष में
वैसे ही कीट में, तरु तृण में, वह ही सारी पृथ्वी में
देह भेद जगाता है मोह, दिखाता है नाना वेश
बुलबुला, आवृत्ति, फेन जैसे विभिन्न जल में
चन्द्र- लोक में सांध्रालोक दीपावली समान
देखते- देखते आत्माएं होती हैं अन्तर्धान ।