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सरकारी कालोनियों में / अनूप सेठी
Kavita Kosh से
बच्चे चौगानों में खेलते हैं
गृहणियाँ सामान ढोते ढोते थक जाती हैं
थकने के लिए सुबह फिर उठ खड़ी होती हैं
लोग पिता और पतियों की तरह दिखते हैं
घर की पीली रोशनी में
तफरीह में पसरे बाबुओं की तरह दाँत कुरेदते हैं
बूढ़े ऊबी हुई चौहद्दियों से बाहर निकल कर
सड़क किनारे बैंचों पर बैठते हैं
आती जाती बसों को देख देख कर थकने के लिए
अजन्मे बच्चे सारा कारोबार देखते हैं
उनके बस में नहीं है अजन्मे रहना।
(1991)