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सरकारी दफ़्तर का हाल और कविताओं का कमाल / दिनेश देवघरिया

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इक्‍कीस दिनों से
पिताजी के पेंशन की फ़ाइल
सरकारी दफ्तर की
धूल फाँक रही थी।
मैं रोज पिताजी के साथ
दफतर के चक्‍कर
काट रहा था
पर बात नहीं बन पा रही थी।
“आज बड़े बाबू नहीं
आए हैं
तो आज कर्मचारी
छुट्टी पर हैं,
हो जाएगा
किस बात की इतनी
हड़बड़ है।”
मैं समझ गया
यहाँ कुछ और ही गड़बड़ है।
मैंने पिताजी को
अंदर की बात समझाई,
पर पिताजी के सिद्धान्तों को
मेरी सीधी बात
समझ नहीं आई।
उन्होंने कहा-
“हम गाँधीवादी हैं
भ्रष्टाचार के सांप को
दूध नहीं पिलाएँगें,
सत्य और अहिंसा के बल पर
अपना काम करवाएँगे।”
पिताजी के सिद्धांत के अनुसार
काम करवाना
मुझे तो कुछ
समझ नहीं आ रहा था।
दिमाग़ का हर तार
उलझता जा रहा था।
तभी मेरे दिमाग़ में
एक आइडिया सूझा
जिससे काम भी हो जाए
और पिताजी की
बात भी रह जाए।
मैं अगले दिन
पिताजी के साथ
दफ़्तर आया
और साथ
अपनी कविताओं की
डायरी भी लाया।
और बड़े बाबू के आगे
पालथी मारकर बैठ गया
कि इसे आज अपनी
सभी कविताएं सुनाऊंगा
और जब तक
मेरा काम नहीं होता
इसका दिमाग़ खाऊँगा।
आठ गजलों के बाद
मैंने उसे सात गीत सुनाया
और जैसे ही
मैं व्यंग्य पर आया।
उसका दिमाग़ चकराया
और ऊँट
पहाड़ के नीचे आया।
बोला-
“अब और नहीं
सुन सकता हूँ
तुम पाँच मिनट रुको
अभी तुम्हारा काम करता हूँ।”
उस दिन ये राज़ समझ आया
कि ये कविताएँ
केवल शब्दों का जाल नहीं हैं
ये तो हथियार है
किसी का
दिमाग़ चाट जाती हैं,
किसी के दिल में उतर जाती हैं।