भुनते रोज़ गोलियों से सौ-सौ भूखे मज़दूर-किसान
भुनते रोज़ गोलियों से अन्याय विरोधी छात्र-जवान
नारी-पुरुष, बच्चे-बूढ़े तक घेर जलाए जाते हैं
अक्सर गाँव-नगर में लंकाकाण्ड रचाए जाते हैं
लेकिन यह सरकारी हिंसा, तो कानूनी हिंसा है
चाहे जितनी गर्दन काटो, सौ फ़ीसदी अहिंसा है
मगर दूसरे उबल पड़ें तो कुल विकास रुक जाते हैं
मिट जाती एकता, देश पर ख़तरे आ मण्डराते हैं
सत्ता के सारे ही भोंपू, पहले से रहते तैयार
गला फाड़ चिल्ला उठते हैं, ‘‘प्रजातन्त्र डूबा मझधार’’
रचनाकाल : 04.02.1975