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सरग न चाहें अपबरग न चाहैं सुनो / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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सरग न चाहैं अपबरग न चाहैं सुनो
भुक्ति-मुक्ति दोऊ सौं बिरक्ति उर आनैं हम ।
कहै रतनाकर तिहारे जोग-रोग माहि
तन मन सांसनि की सांसति प्रमानैं हम ॥
एक ब्रजचंद कृपा-मंद-मुसकानि ही मैं
लोक परलोक कौ अनंद जिय जानैं हम ।
जाके या बियोग-दुख हू में सुख ऐसो कछू
जाहि पाइ ब्रह्म-सुख हू मैं दुःख मानैं हम ॥49॥