सरन गये को को न उबार्यो / सूरदास
राग रामकली
सरन गये को को न उबार्यो।
जब जब भीर परीं संतति पै, चक्र सुदरसन तहां संभार्यौ।
महाप्रसाद भयौ अंबरीष कों, दुरवासा को क्रोध निवार्यो॥
ग्वालिन हैत धर्यौ गोवर्धन, प्रगट इन्द्र कौ गर्व प्रहार्यौ॥
कृपा करी प्रहलाद भक्त पै, खम्भ फारि हिरनाकुस मार्यौ।
नरहरि रूप धर्यौ करुनाकर, छिनक माहिं उर नखनि बिदार्यौ।
ग्राह-ग्रसित गज कों जल बूड़त, नाम लेत वाकौ दुख टार्यौ॥
सूर स्याम बिनु और करै को, रंगभूमि में कंस पछार्यौ॥
भावार्थ :-जो भी भगवान की शरण में गया, उसने अभय पद पाया। यद्यपि भगवान् का न कोई मित्र
है, न कोई शत्रु, तो भी सत्य और असत्य की मर्यादा की रक्षा के लिए, अजन्मा होते हुए
भी वह `रक्षक' और `भक्षक' के रूप धारण करते हैं। प्रतिज्ञा भी यही है।
शब्दार्थ :- उबार्यौ =रक्षा की। भीर =संकट। संभार्यौ = हाथ में लिया।
अंबरीष = एक हरि भक्त राजा। दुरवासा = दुर्वासा नामके एक महान क्रोधी ऋषि।
प्रहार्यौ =नष्ट किया। नरहरि = नृसिंह। नखनि =नाखूनों से। बिदार्यौ =चीर फाड़
डाला। रंगभूमि = सभा स्थल।