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सरयू तट पर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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एक दिवस सरयू के तट पर
राजाराम पधारे,
व्यथा अनन्त जगत की
अपने उर अन्तर में धारे,
 जीवन के सोपान
 दुखों की छाया में बीते थे,
 पूर्ण परम पुरुषोत्तम
 होकर भी तो वे रीते थे।
किन्तु लोक के लिए
समर्पित उनका जीवन धन था,
सब कुछ होते हुए न कुद भी
अपने हित साधन था।
 राम! तुम्हारा जीवन
 पलभर भी न हो सका अपना
 बीत गया ज्यों दुख-दर्दों से
 भरा हुआ हो सपना,
वैसे भी मानव-जीवन
सपने से अधिक नहीं है,
इसकी क्षणभंगुरता पर
ऋषियों ने कहा यही है,
 किन्तु अगर परसेवा में
 यह स्वप्न सहज ढल जाये,
 तो इसमें सन्देह न सत्वर
 रामराज्य फिर आये,
किन्तु स्वयं को छोड़
मनुज कब कोई चिन्तन करता,
अपने ही आँसू से
अपने अन्तस का घट भरता।
 धर्म-मही के पूज्य धराधर
 राम! तुम्हीं पावन हो,
 भारतीय संस्कृति के
 उज्ज्वल शिखर कलश कंचन हो।
तुमने व्यथा हरी शबरी की
जूठे फल खाये थे,
पाषाणी के बन्धन खोले
सबके मन भाये थे।
 दुख सुकण्ठ का हरण किया
 तुमने मित्रता निभाकर,
 तारा को सान्त्वना अमित,
 दी अंगद को अपनाकर,
कण्ठ लगाया विभीषणों को
निष्काषित होने पर,
धर्म निभाया मानवता का
सबके दुःख मिटाकर।
 सबके दुःख समेट हाय!
 अपना उर भरने वाले,
 अश्रुधार पर मधुर
 हँसी के अम्बुज धरने वाले।
धीरे-धीरे चरण राम ने
जल की ओर बढ़ाये,
आकुल-व्याकुल सरयू ने
बढ़ फेमिल-सुमन चढ़ाये।
 लहर-लहर हो अश्रुस्नात
 श्री राम-राम गाती थी।
 आओ हे युगनायक!
 जीवन से यह ध्वनि आती थी।
आज अवध के प्राण
धार में मेरे निकट खड़े थे,
और अवध के लोग
प्राण देने के लिए अड़े थे।
 ऐसा दिवस न आया है
 आगे न कभी आयेगा,
 अश्रु वेग में मानो
 सारा कोशल वह जायेगा।
धैर्य बँधाते हुए सभी कों
प्रभु बढ़ते जाते थे,
धर्म-प्राण सन्देश धर्म-
जीवन बतलाते थे।
 धीरे-धीरे रामराज्य की
 सन्ध्या नियराई थी,
 सिन्दूरी छवि-छटा भानु की
 जल थल पर दायी थी।
घोल रहा था करुणा खग कुल
सन्ध्या विलख रही थी,
मेरे नयनों की सरयू
भी रह-रह छलक रही थी।
 राम समाये जल में
 या श्री हीन हुआ भूमण्डल,
 राम-राम कर उठा
 अवधपुर हुए धरा नभ विह्नल।
क्षणभर को रुक गयी
प्राण की गति अनन्त जीवन की,
एक बार बस एक हुई
गति बाल बृद्ध यौवन की।
 जीवन का आलोक लोक का
 शून्य हो गया पल भर में,
 महा निशा घिर उठी
 दुख भरी जीवन की हलचल में।
आकुल-व्याकुल शान्ति हो गयी
अपनी दीप्ति लुटाकर,
संवेदना मुखर हो करुणा
रोयी लिपट-लिपट कर।
 बहती हुई दृगम्बुधार
 पावन से धुले हुए हैं,
 नाथ! उसी क्षण से
 दृग मेरे अब तक खुले हुए हैं।
आओ लौटो राम!
धरित्री रही दृग भरकर,
अश्रुधार से विचलित सरयू
रक्षा कर लो आकर,
 तुमने जो गरिमा
 प्रादान की थी शुचि वसुन्धरा को,
 भंग कर रहा मनुज
 न जाने क्यों उस परम्परा को?
जीवन की साधना संकुचित
कामद-कुन्ज बड़ा है,
मन का पंछी फोड़ रहा
संयम का स्निग्ध घड़ा है,
 काम क्रोध मद लोभ दम्भ का
 झण्डा कुटिल गड़ा है,
 आओ मेरे राम!
 हृदय का मन्दिर रिक्त पड़ा है।
मैंने ऐसा दृश्य न देखा
पुनः कभी जीवन में,
कोटि-कोटि दृग जहाँ जुटे हों
मौक्तिक रूप सर्जन में।
 लहरों के तट हटा
 तुम्हारा अन्वेषण करती हूँ।
 नयनान्जलियाँ भर भरकर
 मैं नित तर्पण करती हूँ।