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सरसता गूँजती है समरस / मदन गोपाल लढ़ा


'तारै बिना श्याम म्हारै
एकलड़ू लागै...'
गुजरात के किसी गाँव में
गूँजते गरबा का सुर हो
या फिर
रंगीले राजस्थान के ठेठ देहात में
गोरड़ी द्वारा उकेरी मांड
'केसरिया बालम
आओ नी पधारो म्हारै देस...।'

जुदा है भाषा
जुदा है राग
जुदा है रंग
पर नारी मन की
सरसता गूँजती है समरस
राग-रंग की जुबान
मान्यता की मोहताज नहीं होती
उसकी अभिव्यक्ति होती है
निर्विकार।