भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सरित की हर लहर / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सरित की हर लहर घूमती-झूमती
एक के एक पीछे चली जा रही।

हर लहर जानती है कि वह एक दिन
सिंधु की गोद में जा समा जायगी;
जिन तटों से स्वयं बाँह भर जो मिली
छाँह-भर भी न उनकी कभी पायगी।
किन्तु फिर भी सदा मुसकराती हुई,
गीत गाती हुई वह चली जा रही;
क्योंकि उसने समझ यह लिया है यहाँ
जिन्दगी है यही बस कही जारही॥1॥

ये किनारे खड़े पेड़ जो, जानते
वे कि पल की उन्हें खुद खबर ही नहीं;
धार जो प्यार से चूम कर बह गयी
घूम कर वह दुबारा मिलेगी नहीं।
किन्तु फिर भी खड़े पेड़ ये झूमते
झुक रहे धार के प्यार की आस में;
क्योंकि वे देखते हैं युगों से प्रणय
की कहानी यही है चली आ रही॥2॥

सोचता हूँ कि क्या दुःख-सुख, मोह-ममता,
विरह का न इनको तनिक भान है;
विश्व में क्या इन्हें झेलने के लिए
और कोई नहीं, एक इंसान है!
या विजय दुःख-सुख पर अभी पा सका
है नहीं पुत्र मनु का; प्रकृति पा गयी;
फिर प्रकृति पर विजय की कथा व्यर्थ ही
मैं नहीं जानता क्यों कही जा रही!!॥3॥

20.7.56