भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सरूरे-शब का नहीं, सुबह का ख़ुमार हूँ मैं / आरज़ू लखनवी
Kavita Kosh से
सरूरे-शब का नहीं, सुबह का ख़ुमार हूँ मैं।
निकल चुकी है जो गुलशन से वो बहार हूँ मैं॥
करम पै तेरे नज़र की तो ढै गया वह गरूर।
बढ़ा था नाज़ कि हद का गुनहगार हूँ मैं॥