सर्ग पाँच / राधा / हीरा प्रसाद 'हरेन्द्र'
अक्रूरे कंशोॅ के खिस्सा,
सब्भै बीच सुनाय।
कान्हा-बलदाऊ बात सुनी,
मन्द-मन्द मुस्काय॥1॥
सोचै कान्हा कंश राज के,
आबी गेलै काल।
ठीक जल्दी होतै ओकरोॅ,
हाल बड़ी बेहाल॥2॥
नन्द बाबा करिये देलकै,
यही बीच एलान।
धनुष यज्ञ, मथुरा के शोभा,
निरखन करेॅ पयान॥3॥
बाबा के एलान सुनी सब,
मथुरा वाली बात।
गोपियन सब मुरझाई गिरै,
अँखियन मेॅ बरसात॥4॥
बितलोॅ कथा-कहानी सोचेॅ,
कृष्णोॅ के मुस्कान।
तन श्यामल घन, चंचल चितवन
बाँसुरिया के तान॥5॥
वृन्दावन के रास रचलका,
घुँघरैलोॅ ऊ बाल।
सखियन सब पर वाण चलाबै,
मनमोहन के चाल॥6॥
कोय तेॅ अक्रूर पेॅ बरसै,
गाली दै दू-चार।
बड़ा दुष्ट तों हमरा सबकेॅ,
देल्हो कष्ट अपार॥7॥
क्रूर तोंय, अक्रूर कहाँ सें,
नाम रखलखौं माय।
दोसरा के दरद की बुझभेॅ
जे बोलोॅ चिकनाय॥8॥
छै अक्रूर कहा निर्मोही,
सुन्दर बात बनाय।
बाबा केॅ यें मोही लेलक,
अब की करबोॅ दाय॥9॥
दोष तोरोॅ छौं हे बिधाता!
अक्रूर बनी आय।
तोहीं कान्हा प्रेम-पाश सें,
छोॅ रहलोॅ बिलगाय॥10॥
एगो बात विचित्र सखी छै,
मनमोहन चितचोर।
कखनू नैं ताकै हमरा सब,
लागै बड़ी कठोर॥11॥
मन देखै छी जाई कान्हा,
घुरतै मथुरा हाट।
ई छलिया केॅ प्रेम करै के,
लागी गेलै चाट॥12॥
सब्भैं बूढ़ें बापें, दादा,
की-की करी बिचार।
भेजी रहलै मथुरा कान्हा,
होतै बड़ी कचार॥13॥
कोनछी करतै बडे़ं-बूढ़ें,
अब नैं मानब बात।
कान्हा साथें मथुरा जैबै,
अभी लगैबै घात॥14॥