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सर्ग - 12 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’

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जब ईस्वी सन उनीस रहै, रहै जनवरी माह।
झेलै कष्ट अपार मगर नै, पावै छेलै थाह॥१॥

बड़ा भयकर फोड़ा नीकलै, एक्के नैंदू-चार।
फोड़ा के चलते ही हरदम, देहें रहै बुखार॥२॥

बाबा लेली बड़ी समस्या, लागै छै गंभीर।
दरदों सेन बेचैन हमेशा, दुर्बल खूब शरीर॥३॥

कच्चा फोड़ा मारै छेलै, लगलै ठाम्है तीस।
सतसंगी बोलै जब कुछछु, बरै रहै झट खीस।। ४॥

बच्चों कें गुड़गुड़ी लगाबोन, हँसथों पूरा ज़ोर।
पर कानैंवाला बच्चा तें, खूब मचथों शोर॥५॥
दरिंदों सेन राहत नैंतनियों, विहवल छै दिन-रात।
जकरा गोड़े फतै बियायी, वहीं समझतै बात॥६॥

ई मेँहीँ बाबा के, जकरा पूरा ज्ञान।
रोग-व्याधि ककरा छोड़े छै, सोछों दै कें ध्यान॥७॥

वहीं समय में भेजै चिट्ठी, ‘नन्दन’ जे गुरूभाय।
लिखलों छेलै बाबा साहब सेन मीली लें आय॥८॥

बाबा साहब हमरा सबसेन, खोजै छहूँ बिदाय।
दर्शन लेली जुटी रहल छै, सतसंगी समुदाय ॥१॥

हिनने मेँहीँ बाबा अपन्हें, पड़लों छै लाचार।
दरदे तें मजबूर करलकै, मानैंलेली हार॥२॥

अभिलाषा के वेग प्रबल छै, मन में मारेय हाय।
मगर आपदा सबभे केरोन, मंसूबा भूतलाय॥३॥

कुछ दिन बाद फ़नूँ नन्दन के, चिट्ठी ऐलै पास।
मेँहीँ बाबा पढ़तें-पढ़ते, होलै बड़ी निराशा॥४॥

लिखने छेलै नन्दन जी नै, डेलहों तो मटियाय।
बाबा अपनों चोला छोड़ी, कें गेलहों सिधियाय॥५॥

सन उन्नीस केरोन जनवरी, उन्नीसे तारीख।
भोरे साढ़े आठ बजें ही, गेलहों दै कें सीख॥६॥

‘समय बिताना सत्संगों में, करना नहीं विवाद।
अपना घर अब मैं चलता हूँ, देकर आशीर्वाद॥७॥

ऐलों, नै, ऐलो शिष्यों के, सबके लें कें नाम।
अपनों कुछ अनमोल वचन जे, दै अंतिम पैगाम॥८॥

चिट्ठी पढ़थे मेँहीँ बाबा केरणों उदलाई होश।
अपनों लाचारी पर टखनी, करै बहुत अफसोस॥९॥

देवी बाबा के विछोह नें, दै मन कें झकज़ोर।
नाम रूकै के नैंकखनूँ, आँखी केरोन लोर ॥१०॥

विरह आग के लौ में जरलै, अन्तर्मन के चाह।
मेँहीँ बाबा कें ई दुनिया, लागै बड़ी अथाह॥११॥

वै दिन सेन तब मेँहीँ बाबा, छोड़ी कें प्रोग्राम।
समय बिताबै सुमिरन में नित आरू लै में नाम ॥१२॥

ध्यान लगान चाहै आगू, रहै जगह जे शांत।
बैठे चाहै वही जगह पर, जे बिलकुल एकांत॥१३॥

धरहरा सत्संग मंदिर सेन, आगू कुचचू जाय।
ध्यान कूप गंभीर साधना, लेली लै बनवाय ॥१४॥

तीन महीना ध्यान साधना में रहलै वे कूप।
दू सत्संगी सेवा खातिर, पाबै साथ अनूप ॥१५॥

राम लाल जी, श्री महगू कें, होलाइ अवक्सर प्राप्त।
तीन महीना दोनों रहलै, गुरु सेवा में आप्त ॥१६॥

तीन महीना बाद करै छै, ध्यान-कूप के त्याग।
कमजोरी के कारण छेलै, नैंदेहों में लाग ॥१७॥

तीन महीना समय बिताबै, बैथी कें जे कूप।
ऊ कूपों में तनियों ता नै, पाबै कखनूँ धूप ॥१८॥

स्वस्थ रहै के खातिर डाक्टर, जोड़ी बोलै हाथ।
खुली हवा में टहलों, हथ नैंकारों देह के साथ॥१९॥

वै दिन से सुमिरन में बेशी, समय बिताबै रोज।
लेकिन रहलै अन्तर्मन में, सही जगह के खोज॥20॥