सर्ग - 18 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’
बासठ में लखनऊ आग्रा,
नैमिसारण्य, सोरो जाय।
अलीगढ़, मथुरा, हाथरस भी,
पहुंची बाबा धूम मचाय॥१
अठावनमाँ अधिवेशन भी,
राजगीर में जब करवाय।
ऊ अधिवेशन ही जानी लें,
विशेष अधिवेशन कहलाय॥२
तपस्या भूमि महावीर के,
गौतम वहीं लगाबै ध्यान।
बाबा केरो वचन सुनैलें,
दौड़ी पडलै सब इंसान॥३
प्रियबुद्धू जी थाइलैण्ड के,
लाओस के भिक्षु भी आय।
घोषानन्द कंबोडिया के,
बाबा सें जे लाभ उठाय॥४
नवांग छोड़न तिब्बत वासी,
दिल्ली, कलकत्ता के लोग।
देशों के कोना-कोना सें,
आबै फाबी के संयोग॥५
साठवाँ सालाना अधिवेशन,
अड़सठ में होलै हरिद्वार।
भागलपुर सें ट्रेन सुरक्षित,
भक्त पहुँचले एक हजार॥६
कानपुर, बदायूँ, दिल्ली सें,
लखनऊ, आगरा, गुजरात।
पंजाबो सें आबी गेलै,
श्रोता सब्भे रातोंरात॥७
बाबा के बड्डी छै प्यारों,
चुनलों जगह मुरादाबाद।
सत्संगों सब पहुँची गेलै,
बाबा के बस करने याद॥८
योकिको फ्यूजिता जापानी,
शामिल होलै वै में जाय।
बाबा के उपदेश सुनी कें,
शिष्या बनलै शीश झुकाय॥९
भजन-भेद पाबै के लेली,
बाबा आगू बात च्लाय।
मेंही बाबा बोलै टखनी,
महिला के पूरा समझाय॥१०
‘कुप्पाघात अगर आओ तो,
दूँगा भजन-भेद बतलाय’।
यहाँ अभी माहौल नहीं है,
बता दिया मैं अपनी राय॥११
निश्चित करलों समय रहै जे
वै में आबी बाबा पास।
भजन-भेद के प्राप्त करलकै,
ढेर दिनाँ सें छेलै आस॥१२
जापानी महिला बोलै छै,
बाबा सें कुछ अर्ज सुनाय।
“दूर आप से रह पाऊँगी,
अब तो संभव नहीं लखाय”॥१३
बाबा बोलै ‘याद करोगी,
बैठी-बैठी जब जापान।
उसी वक्त मैं मिल जाऊँगा।
करने को तेरा कल्याण’॥१४
यूकिको फ्यूजिता बोलै छै,
‘पहुंचुगी जब मैं जापान।
सोच रही हूँ वहाँ पहुँचकर,
करने आश्रम का निर्माण’॥१५
मेँहीँ बाबा बोलै तखनी,
‘यह तो अदभुत होगा काम’।
मेरा आशीर्वाद रहेगा,
बढ़िया ही होगा परिणाम॥१६
हम लोग यहाँ से पहुँचेगे,
भ्रमण के लिए जब जापान।
आश्रम में सत्संग करैगे,
और लगायैगे भी ध्यान॥१७
रहै छियासठवाँ अधिवेशन,
मार्च महीना सत्तर साल।
भागलपुर सें फेनूँ खुललै,
गाड़ी बाबा भी खुशहाल॥१८
दिल्ली उतरी-उतरी सब्भे,
चलै रामलीला मैदान।
सतसंगी तेन करथे रहलै,
बाबा के हरदम गुणगान॥१९
भारत के उपमंत्री डाक्टर
सरोजनी माला पहनाय।
उपस्थित छेलै विशिष्ट अतिथि,
सम्मानों में हाथ बटाय॥२०
प्रवचन तीनों जगघों केरो,
पुस्तक रूपे छै तैयार।
सत्संगीगण के घर-घर में,
देखें पारो ई उपहार॥२१
सदगुरु महाराज जी गेलै,
घूरते-फिरते जब ऋषिकेश।
वै आश्रम केरो संस्थापक,
छेलै योगी नाम महेश॥२२
परिभ्रमण में गेलो चेलै,
आबी के पूरा पछताय।
परम पूज्य मेँहीँ बाबा सें,
भेंट करै लें झट सिधियाय॥२३
महर्षि महेश योगी आबै,
भागलपुर के कुप्पाघाट।
सूरज के किरणों रङ् चमकै,
योगी जी के दिव्य ललाट॥२४
महर्षि महेश योगी माँगै,
छै बाबा सें आशीर्वाद।
बाबा मेंटों ई सांसारिक,
जीवन के पूरा अवसाद॥२५
मेँहीँ बाबा बोलै तखनी,
‘आप से खुद बिखरे प्रकाश।
आश्रम में भी जाकर देखा,
कृतित्त्व का होता आभास’॥२६
सुनथे महेश योगी बोलाई,
नैंबैठे तनियों चुपचाप।
‘मुझमें तो प्रकाश है बाबा,
पावर-हाउस खुद हैं आप’॥२७
महर्षि मेँहीं बाबा बोलै,
‘भारत के ज़्यादातर लोग।
समझ नहीं पाते हैं कुछ भी,
क्या होता है साधन-योग’॥२८
प्रचार-पसार करना होगा,
मुख्य बात रखनी है याद’।
बिदा करै महेश योगी कें,
अपना हाथे दें प्रसाद॥२९
सतहत्तर के अप्रैलो मेँ,
महेश योगी करे उपाय।
वेद-मंदिर के प्रतिष्ठापन,
अपनों निर्णय सागर सुनाय॥३०
शंकराचार्य नगर बीच में,
ऋषिकेशों के आसे-पास।
मेँहीं बाबा कर-कमलों सें,
कराबबै वैठाँ शिलान्यास॥३१
महेश योगी के आग्रह पर,
दू दिन ठहरी कर सत्संग।
करलक बाबा लौटै लेली,
योगी जी कें पूरा तंग ॥३२
फेनूँ करों द्वारा दिल्ली,
दिल्ली पकड्लक वायुयान।
पटना आबी कारों सें ही,
पहुँचे जहाँ गंतव्य स्थान॥३३
सत्तरवाँ अधिवेशन होलै,
अठहत्तर मेँ पूरा ज़ोर।
देशों के कोना-कोना मेँ,
मचलों छेलै काफी शोर॥३४
भागलपुर मेँ होना छेलै,
बढ़िया रहलै ई संयोग।
टूटी पडलै भीड़ उमड़लै,
नैंमानैंआबै सें लोग॥३५
महेश योगी सें उदघाटन,
अधिवेशन के होना जान।
उतना ऐलै लोग वहाँ पर,
नैंछेलै जकरों अनुमान॥३६
स्विट्जरलैंडों सें योगी जी,
वायुयान के द्वारा आय।
मेँहीं बाबा उनका हाथो
सें ही उदघाटन करवाय॥३७
मेँहीं बाबा के निवास पर,
महेश योगी जखनी आय।
साथे नैंबैठे आसन पर,
चरणों मेँ बैठे सिरनाय॥३८
विदेश यात्रा भ्रमण करै के,
महेश योगी मारै ज़ोर।
वायुयान द्वारा अमेरिका,
यूरोपों के छोरे-छोरे ॥३९
सब्भे खर्चा महेश योगी,
करतै जानी लें तों भाय।
प्रस्ताव मगर मेँहीं बाबा,
दै छै बोली के ठुकराय॥४०
राखै याद सभ्यता-संस्कृति,
की लोगों पर शान-गुमान।
दशा देश के झलकै छेलै,
जकरा ऊपर पूरा ध्यान॥४१
उच्च शिखर के साधक छेलै,
करै योग ताप आरू यज्ञ।
खूबी एगो आरू छेलै,
साहित्य कला के मर्मज्ञ॥४२
महर्षि मेँहीं पदावली के,
सब पद मेँ छै भरलों राग।
सत्संग योग भी अनुपम कृति,
देखें पारोन चारों भाग॥४३
रहै प्रकाशित पहिनें भी तें,
रामचरित मानस के सार।
प्रथम भाग सत्संग सुधा के,
होलै चौवन मेँ तैयार॥४४
ढेरी पुस्तक छपलै आरू,
दै बाबा कें जब सम्मान।
नैंस्वीकारै सम्मनों कें,
पुरस्कार पर भी नैंध्यान॥४५
कर पी.एच.डी. शोधकारी,
विद्वानें इनको साहित्य।
शोध परक छै जीवन-दर्शन,
आभासित जेना आदित्य॥४६
आत्म ज्ञान पाबी कें बाबा,
बनबै एगो अहीनों चित्र।
महाशून्य मेँ भँवर गुफा कें,
देखी सबके लगै विचित्र॥४७
हिरण्य गर्भ, शद्वातीत पद,
त्रिकुटी केरो अर्थ बुझाय।
जकरों मोंन भटकतै बाहर,
एकदम जैतै ओझराय॥४८
एक वार सतहत्तर सालें,
जालंधर के मोंन बनाय।
नौ अक्तूबर केरोन छेलै,
आरक्षित टिकटों बनवाय॥४९
कलकत्ता मेँ छेलै बाबा,
सतसंगी शीला के द्वार।
करतें रहलै चार-पाँच दिन,
वहीं ठहर सत्संग प्रचार॥५०
नौ अक्तूबर बाबा बोलै,
दिन आगया आज रविवार।
पश्चिम की यात्रा करने में,
है कुछ संकट का आसार॥५१
संतसेवी महाराज करै,
टिकट कटैलो केरो जिक्र।
सेवक के मजबूरी जानी,
बाबा कहै चलो बेफिक्र॥५२
‘जो स्वर चले ताही पग दीजाइन,
बाबा बोलाई सोच-विचार’।
‘इक टक्कर कालहूँ से दीजै,
नैंबूझै बोलै के सार ॥५३
गुरुदेवों के हाथ थम्हाबै,
सब्भै अपनों-अपनों रास।
ठाम्हैं एक धमाका होलै,
जकरों नैंकुछ छेलै आस॥५४
टार्च जलाबै देखै सबकेन,
सब्भे छेलै ठीके ठाक।
अगला डब्बा सें कानैंके,
अवाज्न कें सुनी अवाक॥५५
खड़ी मालगाड़ी सें होलै,
टक्कर नैनी मेँ तत्काल।
ईजन के पीछू के डब्बा,
चूर-चूर लोगों बेहाल॥५६
ईजन केरो पता कहीं नै,
घायल के होलै उपचार।
‘जो स्वर चलै ताहि पग दीजै’,
ई बातों पर करों विचार॥५७
चलै अमृतसर, गुरुद्वारा भी,
बाबा यात्रा के दौरान।
हरि मंदिर घूमी-घामी कें,
भागलपुर लें करै पयान॥५८
वहीं मिलै छै पत्रकार जी,
छेलै नाम विजय निर्वाध।
सोछे छै कुछ प्रश्न पूछना,
नैंहोतै कोनों अपराध॥५९
पत्रकार पूछै बाबा सें,
बड़ा कठिन सदगुरु के खोज।
वस्त्र गेरुआ धारण करलों,
साधु-संत देखै छी रोज॥६०
दाढ़ी, मूछ बढ़ेथे बैठे,
पकड़ी कोनों देवस्थान।
चन्दन माथा लेपी समझै,
ठाम्हैं अपना कें भगवान॥६१
मेँहीं बाबा हस्से लगलै,
पत्रकार के सुनथे बोल।
‘मैं तो ऐसा नहीं समझता,
ना मैं हूँ वह फुट्टा ढ़ोल’॥६२
आगू सन्यासी के व्याख्या,
बाबा के होलै बेजोड़
व्याख्या सें ही पत्रकार के,
जीवन मेँ ऐलै कुछ मोड॥६३
एक प्रशन पूछै छै फेनूँ,
भाषा मेँ लानी बदलाव।
पत्रकार कें बाबा सें कुछ,
सीखै के झलकै छै चाव॥६४
‘अहम ब्रहमासिम’ उक्ति पूर्णत:,
सही मानते हैं क्या आप।
यही उक्ति क्या छोड़ चुकी है,
दिल-दिमाग पर पूरा छाप॥६५
सदगुरु महाराज जी बोलै,
ओठों पर लानी मुस्कान।
‘सही पूर्णत: मान रहा हूँ,
पर कैसे! इस पर दो ध्यान’॥६६
नदी मिले जैसे सागर मेँ,
अपना सब असितत्व मिताय।
उसी भांति यह जीव ब्रहम में,
जाकर प्रतिष्ठित हो जाय॥६७
जीवात्मा ‘स्व’ का त्याग करके फिर,
परमात्मा में होवे लीन।
अपने को जब समझे हरपल,
जल से बाहर जैसे मीन॥६८
वेद ऋचाओं का उचारण,
महापुरुष की है पहचान।
उक्ति सही तब ही तो होगी,
समझो इसको देकर ध्यान॥६९
पुन: प्रार्थना केरो स्वर में,
पत्रकार पूछै छै बात।
‘नहीं भूलता हूँ ईश्वर को,
करूँ याद मैं भी दिन-रात॥७०
कमी यही है मैं पूजा का,
नहीं जानत एक विधान।
ऐसे को भी कभी शरण में,
रख पायेंगे क्या भगवान’॥७१
यै बातों पर बाबा पहिनें,
काम करै छै पूरा ठप्प।
तबे पत्रकारों के आगू,
कहै महाभारत के गप्प॥७२
‘एकबार अर्जुन जब आये,
मिलने मधुसूदन के पास।
मधुसूदन को ध्यान लगाये,
देखा तो हो गया हतास॥७३
आँख खुली जब मधुसूदन की,
बोला अर्जुन हे भगवान।
सारी दुनिया तो करती है,
सदा आपका केवल ध्यान॥७४
ध्यान आप करते हैं किनका,
बतला दें प्रभु मैं अनजान।
माथा-पच्ची लाख करूँ मैं,
जरा नहीं होता अनुमान’॥७५
अर्जुन केरो प्रशन अनूठा,
सुनथे बोलै छै भगवान।
‘उनका ध्यान सदा मैं करता,
जो मेरा करते हैं ध्यान’॥७६
कथा महाभारत के बोली,
बाबा करै ज्ञान के दान।
‘सच्चा मानो नहीं चाहते,
परमेश्वर विधि और विधान’॥७७
सदा भावना के भूखे है,
कभी-कभी ही करना याद।
पर इस मन से नहीं भुलाना,
बाबा का इतना फरियाद॥७८
सब्भे प्र्श्नो के उत्तर सें,
समझै भजन-भेद के गूर।
बाबा के आगू में होलै,
पत्रकार के शंका दूर॥७९