सर्ग - 1 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’
धरती पर छै स्वर्ग सरीखे, सुंदर भारत देश।
अनेकता में एकोँ केरोँ, हरदम दै संदेश॥१॥
स्वच्छ-धवल तुषार सेन मंडित, नगपति पहरेदार।
भारतवासी के लेली छै, सच्चा प्राणाधार॥२॥
संस्कृति भारत देशों के छै, अनुकरणीय अनंत।
यै संस्कृति में पलै देश के, ज्ञानी ऋषि-मुनि-संत॥३.॥
धन्य-धन्य छै हमरों भारत, धन्य यहाँ के लोग।
सब्भै केरो हृदय-पटल पर, स्नेह-शांति-तप-योग॥४॥
राम-कृष्ण के ई धरती पर, संतन केरोँ बास।
भक्तो गण सब धर्म धुरंधर, सबमें हर्ष-उल्लास॥५॥
याज्ञवलक्य, बाल्मीकि यहाँ पर, कबीर, तुलसी, सूर।
रामतीर्थ शुकदेव हृदय में, महावीर मशहूर॥६॥
नारद, शंकर, जनक संत जी, वशिष्ठ, दधीचि व्यास।
नानक रमानन्द कहाबेँ, भक्त शिरोमणि खास॥७॥
बसै विवेकानंद जहाँ पर, भारत छै अनमोल।
साधु-संत केरोँ बोली में, छै मिश्री के घोल॥८॥
भारत के उतरी भाग में, अंग क्षेत्र विख्यात।
दानी कर्ण जहाँ के राजा, चर्चा छै दिन-रात॥९॥
सुल्तानगंज शहर अंग के, देश-विदेशें नाम।
जहाँ बहै छै उतरवाहिनी, गंगा आठो याम॥१०॥
उ गंगा के बीच धार में, अजगैव के धाम।
अजगैवी बाबा मेटै छै, असाध्य रोग तमाम॥११॥
मधुसूदन मंदार बसै छै, महिमा अगम अपार।
समुन्द्र मंथन में देवोँ के, करने छें उपकार॥१२॥
अंग क्षेत्र उतर तरफ़ों में, गेलों छै नेपाल।
दक्षिण दिशा बाबा धामों तक, छिरियैलों छै जाल॥१३॥
किउल नदी तक पश्चिम तरफें, सबकेँ छै मालूम।
उधवा नाला तक पूरव में, अंग-बंग के धूम॥१४॥
यै अंगों में एको पर छै, एक संत के वास।
जौंने बाँटै संसारों में, उज्जवल परम प्रकाश॥१५॥
ऊपर लिखलों नाम संत के, वहें कड़ी के रूप।
महर्षि मेँहीँ बाबा छैलै, जग में परम अनूप॥१६॥
नगर रेशमी भागलपुर में, आश्रम, एक बिराट।
घर-घर, बच्चा-बच्चा जानै, ऊ छै कुप्पा घाट॥१७॥
कुप्पा घाटों के सन्यासी, महर्षि मेँहीँ दास।
लेथैं जिनको नाम अखनियों, मेट छै भय-त्रास॥१८॥
परम संत मेँहीँ बाबा के, परमोज्ज्वल व्यक्तित्व।
संत समाजों में छैलों छै, गौरवमयी कृतित्व॥१९॥
महापुरुष के जीवन गाथा, अनुपम अनुकरणीय।
जीवन-शैली, मार्ग बतैलो, हरदम अनुसरणीय॥२०॥
नर-नीला खातिर अवतारी, महापुरुष के रोग।
भूख-प्यास, भय-त्रास सताबै, भेद न जानैं लोग॥२१॥
लीला तें लीला ही होतै, खाक पकड़तै कोय।
सीता खोजों में प्रभु भटकै, कथा हमेशा ढोय॥२२॥
माँटी खैतें देख यशोदा, मारै लें तेयार।
मुँह खोली कें दिखलाबै छै, मुख में ही संसार॥२३॥
अका-बका सुर मारी मारी मेटै जग परिताप।
कागासुर, नागासुर देखी, करै बाप रे बाप॥२४॥
ईश्वर के पेटों में पीड़ा के, पतियैतै भाय।
मनमोहन तें नारद कें भी देने छै चकराय॥२५॥
उद्धव जी के ज्ञान मिलावै, माँटी में यदुराय।
राधा जी केरोँ आगू में, बोले शीश झुकाय॥२६॥
बानासुर के अभिमानों कें, करै कृष्ण विध्वंस।
अनिरूद्ध-उषा के मिलन कहो, असुर संग यदुवंश॥२७॥
औघड़दानी केरों महिमा, कौनैंकरै बखान।
भस्मासुर कें भय सेन भागै, दौड़े कृपा निधान॥२८॥
रूप मोहिनी तुरंत बनाबै, करूणा के अवतार।
भस्मासुर कें भस्म करै कै, कथा ज्ञात संसार॥२९॥
रहै उदाकिशुनगंज थाना, जिला सहर्षा ठीक।
श्याम खोखशी पंचायत भी, ओहीठाँ नजदीक॥३०॥
एक मझुआ टोलों छोटों, रहै बड़ा रमनीक।
शहरी वातावरण वहाँ नै, लोग रहै निर्भीक॥३१॥
बलुआनददी बहथे छेलै, भरलों पोखर-ताल।
पाटल संग अशोक वहाँ पर, कदली, बेणू, रसाल॥३२॥
ग्रामीण जीवन सादगी सें, निश्छलता अपनाय,
भाईचारा भाव बनैनें, जीयै हरिगुण गाय॥३३॥
शताब्दी उनीसवीं छेलै, दशक नवाँ के भाग।
ईस्वी सन् पच्चासी छेलै, सूरज उगलै आग॥३४॥
अट्ठाईस अप्रैल जरा नै, गर्मी मानैंहार।
सातो में जे सबसे सुंदर, छेलै मंगलवार॥३५॥
उन्नीस सौ बियालिस छेलै विक्रम संवत मान
संतावन वरसों के अन्तर, दोनों के पहचान॥३६॥
बैसाखों के चतुर्दर्शी केन, शूकलपक्ष शुभ जान।
धरती पर कुछ हलचल मचलै, जकरों नैंअनुमान॥३७॥
विद्यानिवास दासों के घर, जन्मैं सुन्दर बाल।
रूपवान सुन्दर बालक के, चमकै छेलै भाल॥३८॥
नाना के घर जन्मै बालक, जनकवती के गोद।
नाना विद्यानिवास मचले, घर में मंगल-गोद॥३९॥
आँख खोललक बालक जेन्हैं, चमकै पूरा घोंर।
दुख-दरिया उमड़ेलों छेलै, तुरंत लेलककै कोर॥४०॥
सोलह-सोलह साथ चंद्रमा, लागै करै प्रकाश।
देह धरी ऐलै सर्वेश्वर होलै तब विश्वास॥४१॥
सूरज रङ् चमकै मुखमण्डल, साधु-संत के योग।
सुनी-सुनी सब दर्शन लेली, उमड़े लगलै लोग॥४२॥
देखी सुनी अलौकिक बालक, गदगद सबके मोंन।
अहीनों सुन्दर बालक आगू, की संपत, की धोंन॥४३॥
जन्मों सें बालक के माथा, छेलै जट्टों सात।
कंघी सें तोड़ैं तब दिन में, फेनूँ वाहिनें रात॥४४॥
तुलसी दासों के सब दाँते, छेलाइन जखनी जन्म,
ताहिया नैंकुछ झलकै छेलै, ऐमें कुछछु मर्म॥४५॥
दुनिया भर में नाम करललै, देखों तुलसीदास।
मेँहीँ के माथा में जट्टों, मतलब छै कुछ खास॥४६॥
तुरंत ज्योतिषी बोलाबै के, बात कोय समझाय।
मिलथे खबर ज्योतिषी दौड़ी, आबी गैलै भाय॥४७॥
जबें ज्योतिषी बालक देखे, गेलै नैन जुड़ाय।
जब माथापर जट्टों देखै, मन गेलै चकराय॥४८॥
पोथी-पतरा उलटी-पुलटी, बोलै तब आचार्य।
बालक केरो द्वारा होथों, जग में सुन्दर कार्य॥४९॥
देखै हाथों केरों रेखा, देखै फेनूँ भाल।
नाम रखलकै सोची-समझी, रामानुग्रह लाल॥५०॥
रामानुग्रह केरों दादा, छेलै नसीव लाल।
भरत लाल जी रहै सहोदर, एक वृक्ष दू लाल॥५१॥
भरत लाल जी बदलै वाला, बढ़िया करलक काम।
रामानुग्रह के हुनियेँ तें-राखै मेँहीँ नाम॥५२॥
भरत लाल केन पुत्र तीन ठो, बड़का नौबत लाल।
सोहबत लाल मंझला रहै, छोतों तें दुन लाल॥५३॥
एगो पुत्र नसीब लाल कें, छेलै बबुजन लाल।
पहिली पत्नी फूलवती जे, लूटी लेलक काल॥५४॥
संतानहीनता के चलतें, दूसर करै विवाह।
जनकवती सें पूरा होलै, बबुजन जी के चाह॥५५॥
किलकारी सें घर कें हर्षित करलक झूलन दाय।
ठाम्हैं तीन बरस के अंदर, रामानुग्रह आय॥५६॥
कर्ण कायस्थ कुले अवतरित, मेँहीँ जी के बात।
बबुजन जी के कानें गेलै, ठाम्हैं रातों रात॥५७॥
बबुजन जी के खुशियाली के, नैंकरभो विश्वास।
नाँचे लगलै सुनथै दिल में, भरलै हर्षोउस्लास॥५८॥
एक बात मेँहीँ के पूर्वज, कारै चेलै निवास।
जिला पुरनियों केयरों बीचेन, काझी ग्रामें खस्स॥५९॥
कोशी नदी कटावों चलतेन, मेँहीँ के खानदान।
बनमनखी थाना में बसलै, भैया सब लें जान॥६०॥
सिकली गढ़ धरहरा कहाबै, परम मनोहर गाँव।
बैठी-बैठी समय बितावै, लोगें गाछी छाँव॥६१॥
सिकली गढ़ धरहरा गाँव में, हंसी-खुशी के राज।
जय-जयकार सें घर-घर गूँजें अब आवाज॥६२॥
शुभ दिन तब देखि के लानै, मेँहीँ अपनों घोंर।
अवसर ताकी बरसें लगलै, टिप-टिप टिपटिप झोर॥६३॥
ब्राहमण सबके बबुजन लाले, दै मनवाछित दान।
सब्भे के आशीर्वादों सें, पुत्रों के कल्याण॥६४॥
कुचछू दिन तें रहलै घर में, हँसी-खुशी के राज।
नैंलगलै देरी तनियो टा, बदली गेलै साज॥६५॥
दिवस सुखों के जल्दी जैथों, दुकखेन करै तवाह।
दुक्खों कें सुकखों सें हरदम, लगै सोतिया डाह॥६६॥
ठीक विधाता के विधान, में , लिखलों छेलै और।
चार बरस में जनकवती भी, गेली दोसर ठौर॥६७॥
बच्चा पालन लेली जानो, करै तेसरॉन ब्याह।
दयावती कें ऐथे घर में, सब्भे में उत्साह॥६८॥
मेँहीँ केरों लालन-पालन, नानी केरों हाथ।
झूलनदाय बहिन जे चेली, उनको रहलै साथ॥६९॥
ममता, करूना, द्या भाव से, मेँहीँ के दे प्यार।
दून्हूँ मेँहीँ के पालन के, लेने छेली भार॥७०॥
करूणा केरो सागर दोनों, सुन्दर बड़ा स्वभाव।
मेँहीँ के नैंकभी अखड़लै, माँ के जरा अभाव॥७१॥
भला कर लें दुनिया भर के, मेटै लें भू भार ।
ऐलै मेँहीँ ई धरती पर, भक्तन के हिय हार॥७२॥
जन्म-मरण से दूर हमेशा, संतन के अवतार।
महर्षि मेँहीँ केरों, आगू जीवन सार॥७३॥