सर्ग - 2 / महर्षि मेँहीँ / हीरा प्रसाद ‘हरेन्द्र’
पाँच बरस में मेँहीँ जी के, मुंडन होलों छेलै।
तखनी तक तें मेँहीँ हरदम, गरदा धूलें खेलै॥१॥
सात बरस के होलै जखनी, धरहरा स्कूल आबी।
शिक्षा खातिर नाम लिखाबै, अवसर बढ़िया पाबी॥२॥
रामानुग्रह नामों सें ही, शुरू करलकै पढ़ना।
इनका कैथी साथ फारसी, आगू छेलै बढ़ना॥३॥
एक समाजित सिंह शिक्षकें, आबी रोज पढ़ाबै।
अँग्रेजी हिसाब के शिक्षा, अपन्है घर पर पाबै॥४॥
ग्राम पाठशाला के शिक्षा, खतम करलकै जहिया।
जाय पूर्णियाँ जिला स्कूल में, नाम लिखाबै तहिया॥५॥
वर्ग आठवाँ सें ग्यारह तक, पूरा वहीं पढ़लकै।
पढ़थैं-पढ़थैं योग-साधना, केरों ज्ञान सिखलकै॥६॥
सब्भे विद्यालय में तखनी, चाहे किओनोन कक्षा।
रहै फारसी, उर्दू साथें, अंग्रेजी के शिक्षा॥७॥
आध्यात्मिक संस्कार जहाँ पर, उनकों अलग समस्या।
सूझें लगलै उनका हरदम, पूजा-पाठ-तपस्या॥८॥
धर्म परायण बापे छेलै, भक्ति भाव से भरलों।
रामचरित मानसा आगू में, रहै हमेशा धरलों॥९॥
मानस पाठ हमेशा करते, देखै मेँहीँ जखनी ।
अनुराग बढ़ै रामायण सें, दिल-दुनिया में तखनी॥१०॥
उनका आँखी में आँसू भी, देखै पढ़तें-गैतें।
की रहस्य छै ऐमें भरलों, सोचै पीतें-खैतें॥११॥
बाबू जी के नैं रहला पर, मानस रोज निकालै।
ऐतें देखी डरलों झटपट, बक्सा अन्दर डालै॥१२॥
किष्किंधा काण्डों सें पढ़ना, मानस शूरू करलकै।
दोहा-चोपाई याद करी, मन में खूब धरलकै॥१३॥
उच्चों कक्षा में ऐलै जब, नैं घबड़ाबै कहियो।
रामायण, सुखसागर, गीता, पढ़थैं रहलै तइयो॥१४॥
शिव कें मानी इष्ट करै नित, ध्यान-तपस्या-पूजा।
शिव शंकर कें छोड़ी आबै, ध्यानों में नैं दूजा॥१५॥
रामानन्द नाम के छेलै, साधु-संत अलबेला।
जे कहलाबै दरिया पंथी, घूमै सगर अकेला॥१६॥
उनका सें जप-तप-योगों के, मेँहीँ पाबै शिक्षा।
लेलक खुल्ला आँखी वाला, त्राटक केरो दीक्षा॥१७॥
अभ्यासों में मोंन लगाबै, पढ़ना-लिखना छोड़ी।
पाठय-पुस्तकों सें भी नाता, मनें देलकै तोड़ी॥१८॥
धर्म ग्रंथ में लगन लगाबै, अध्ययन में उदासी।
साधु-संत के संगत लेली, रहै सदा अभिलाषी॥१९॥
भगवानें अपना भक्तों कें, धरती पर जब भेजै।
भक्तों तें भगवानों खातिर, दुनियादारी तेजै॥२०
पढ़ना-लिखना छोड़ी निश्चय, करै तपस्या केरों।
यै कामों में कहाँ जरूरत, साथी-संगी-जेरों॥२१॥
चलै पूर्णियाँ सें गंगा तट, तेरह कोस अकेला।
भक्ति-प्रेम के सागर लहरै, पर नैं पास अधेला॥२२॥
झूलन दाय बहिन जे छेली, उनको दुख की कहना।
को चूक ईश्वर सुहाग के, छीनी लेलक हगना। २३॥
विधवा जीवन सदा बिताबै, मेँहीँ केरो साथें।
वहीं सँवारै मेँहीँ केरों, जीवन अपना हाथें॥२४॥
ख्याल बहिन विधवा के ऐथैं, मेँहीँ कानें लागै।
बैरागों के भूत तखनियें, कुछ दिन लेली भागै॥२५॥
गंगा में डुबकी मारी कें, मन कें शांत करलकै।
राह पूर्णियाँ लौटै केरों, मेँहीँ तुरंत धरलकै॥२६॥
तलबा बीच फफ़ोला निकलै, पैदल चलतें-चलतें।
वापस आबै ठीक समय पर, सूरज ढलतें-ढलतें॥२७॥
कुछ दिन केरों बाद वेग के, दौर दोसरों चललै।
पूज्य पिता कें खबर मिलै तें, उनका पूरा खललै॥२८॥
पहुँची गेलै शहर पूर्णियाँ, मेँहीँ कें समझाबै।
अपना साथें उनका फेनूँ, अपना घर लें आबै॥२९॥
वेग तेसरों उमड़ै अहिनों, जंगल चल्लों गेलै।
उपवास करी कें चिंतन में, लीन जरा सा भेलै॥३०॥
चिंताकुल मनमें शांति कहाँ, झूठे मन भरमाबै।
पछतैलों- पछतैलों लौटी, आवासों पर आबै॥३१॥
फेनूँ इनको निर्णय होलै, गुरू-आश्रम में रहना।
गुरू सेवा में तल्लीन रही, सुख-दुख, सब्भे सहना॥३२॥
छोड़ पूर्णियाँ भागै केरों, खबर पिता कें मिललै।
गुरू-आश्रम में पाबी लेकिन, कली हृदय के खिललै॥३३॥
पुत्र-प्रेम जतलाबै पूरा, बैठी कें समझाबै।
तुरंत पूर्णियाँ अपना साथें, लौटैने लें आबै॥३४॥
इनको रहै विचार हमेशा, अच्छा तालिम पाबै।
अच्छा तालिम के बल-बूतें, अच्छा धोंन कमाबै॥३५॥
पर मेँहीँ जी चाहै छेलै, भगवद भक्ति कमाबों।
एकांत साधना में बैठी, हरि गुण केवल गाबौं॥३६॥
विद्याल्य में तीन परीक्षा, निश्चित छेलै होना।
तिमाही, अर्द्धवार्षिक, वार्षिक, सबकें छेलै ढोना॥३७॥
ईस्वी उनीस सौ चार के, बोलौं बात यहाँ पर।
त्रैमासिक नैं होलै तखनी, मेँहीँ पढ़े जहाँ पर॥३८॥
तीन जूलाई निश्चित होलै, अर्द्धवार्षिक परीक्षा।
मेँहीँ तें दूसरे कामों के, लेनें छेलै दीक्षा॥३९॥