सर्जन-क्षण में / तरुण
कलईसाज, धौंक उठता है अपनी धौंकनी-
कोयले दहकाने, बासन गरमाने, रांगा लगाने
थाली-पतली को चाँद-सूरज-सा उजलाने।
स्वर्णकार अपनी नन्ही फुंकनी से
दीए की लौ की तीव्र ज्वाल की दिशान्तरित लपट से,
सामने पात्र में पड़ी, टूट-फूट
स्वर्ण के दाना, कण, जर्रा, रेशा-तंतु, अणु को
तपतपा देता है!
कौन सी आँधी के तहत किस लौ से
सर्जन के मंगल क्षण में
मेरा भी वर्ण-वर्ण शब्द-शब्द
मात्रा, प्रत्यय, उपसर्ग, विराम चिह्न
हो उठता है दहक कर
कंचनिया, गुलाबी, नारंगिया, सिन्दूरी!
मैं ठंडा, बासी, जड़! कौन-सी आभा ओढ़-
उड़ने लगता हूँ ब्रह्माण्डों में-
इन्द्रधनुषी पंख लगाये,
अनंत विराट की ओर-
मेरे भीतर के अँधियारे मरु-मैदान, पठार, दर्रे व घाटियाँ
-सब ही उठते हैं भोर की अरुणाली में
तरबतर!
न जाने कौन-सा करैंट छू जाता है
मुझ माटी के लौंदे को!
सर्जन-क्षण में!
1990