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सर्द है रात, सुलगती हुई तन्हाई है / रमेश 'कँवल'

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सर्द है रात,सुलगती हुर्इ तन्हार्इ है
दिल के आग़ोश में इक चोट उभर आर्इ है

मेरे महबूब! कहां है तू सदा ही दे दे
ज़िन्दगी फिर मेरे माज़ी को पुकार आर्इ है

महो-अंजुम1 की जवानी भी ढली जाती है
आख़िरी लौ तेरी उम्मीद की उसकार्इ है

जुस्तजू2 मेरी ज़मी पर न करो अहले-ज़मीं3
ज़िन्दगी मेरी खलाओं के करीब आर्इ है

जख़्म के फूल़ महक उठे हैं, सागर खनके
साकि़या! जाम, चली यादों की पुरवार्इ है

जब भी छार्इ है मेरे सर पे मुसीबत की घटा
आशना चेहरों ने यकगोना4 जि़या पार्इ है

ज़ुल्फ़-बर-दोश5 है साक़ी भी घटायें भी हैं
रक़्से-मयते ज़क रोजश्न की रात आर्इ है


गर्द राहों की मेरे पांव ने चाटा है 'कंवल’
तब कहीं मंज़िले-मक़्सूद6 नज़र आर्इ है।


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4. एकरंग-एकप्रकार 5. कंधे पर अलक 6. अभीष्ट स्थान।