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सर्पीला दिन / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
तिरछी रेखा, काँटे - उलझी केंचुल
गुज़र गया एक और सर्पीला दिन
ज़हर बुझे सूरज ने बार बार पूछा
हमसे नया पता
रक्त-सने क्रॉस पर लटक गया
ज्योति देवता
लुढ़के से स्ट्रेचर पर पियरायी शाम, लगा
डूबी बेहोश हुई कोई कमसि
पपड़ाए होंठो पर जमकर रह गये
हरे आश्वासन, नीली बातें
दुपहर के हाथ लग गई भारी ऊब
घुनी याद और सुखी आंतें
कुछ टूटे बिस्किट, अधफूला गुब्बारा
बाबा से लिपट गई छोटी नातिन
हम ऐसे घाट गये -
रांगे की नदी बही पाँवों में
गंतव्यों के नक्शे हाथ में लेकर हम
चढ़ रहे पत्थर की नावो में
अनचीन्हे हुए हमें अपने हस्ताक्षर
पत्रों के पार गई जंग लगी पिन