भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सर्वरहित, एकाकी वनमें खड़ा कर रहा दीन पुकार / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
सर्वरहित, एकाकी वनमें खड़ा कर रहा दीन पुकार।
‘दीनबन्धु! हे सुहृद-शिरोमणि! सर्वेश्वर! अनुपम दातार॥
मैं अति पतित, विषय-विष-जर्जर, सन्मार्गच्युत, अधम अपार।
आश्रयरहित, साधना-विरहित, हृदय अपरिमित पूर्ण विकार॥
कर दृढ़ निश्चय हो अनन्य, मैं चरण-शरण आया हूँ द्वार।
कर परिशुद्ध, बना लो अपना, विरद-विवश हे परम उदार!’