सर के ऊपर फूस की छानी तो है
आपकी इतनी मेहरबानी तो है
बच गए सूखे से हम तो क्या हुआ
डूबने को बाढ़ का पानी तो है
एक मुट्ठी ही सही, खाने के बाद
पेट भरने के लिए पानी तो है
सिर्फ गठरी भर गिरस्ती ठीक है
सिर पे ढो लेने में आसानी तो है
झोल खटिए की तरह बेदम सही
ज़िदगी का कुछ न कुछ मानी तो है
गर ख़ुशी हासिल नहीं तो क्या हुआ
ग़म ग़लत करने की मनमानी तो है