सर झुकाया है तुम्हारी सादगी के सामने / पूजा श्रीवास्तव
सर झुकाया है तुम्हारी सादगी के सामने
यूँ न समझो हार दी गैरत खुदी के सामने
एक कक़तरा आब में मुमकिन है बह जाए ज़मीं
बाँध कोई मत बनाना इस नदी के सामने
अब नहीं हैं खूबसूरत ख्वाहिशों सी औरतें
वहशियत काबू में रखना सादगी के सामने
राज़ महफ़िल में सुनाया जब किसी के यार ने
दुश्मनी अच्छी लगी फिर दोस्ती के सामने
क्या सही अच्छा बुरा क्या जब बताया लाल ने
यूँ लगा लम्हा बड़ा है इक सदी के सामने
बंदगी की राह में उस वक़्त न आना कि जब
हुस्न सजदा कर रहा हो आशिकी के सामने
नाम मजबूरी है जिस शय का उसी शय की कसम
हार मानेगी खुदाई बेबसी के सामने
आदमी ने घोल रक्खा है हवाओं में ज़हर
कैसे चाहत साँस लेगी आदमी के सामने
अपने अन्दर तुम तबीयत से जगाओ प्यास तो
घूँट भर का है समंदर तिश्नगी के सामने
तजकिरा जब हो तुम्हारा राज़ खुलने का है डर
हिचकियाँ लेती हैं यादें हर किसी के सामने