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सर पे जो मेरे वक्त का साया नहीं होता / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
सर पे जो मेरे वक्त का साया नहीं होता
लहरों में जिंदगी का सफ़ीना नहीं होता
होता न सरे शाम मुझे रब का इशारा
सिजदे में कभी सर ये झुकाया नहीं होता
आँगन में मेरे प्यार के न फूल महकते
भौरों ने आ के फूल खिलाया नहीं होता
आफ़ात में भी हाथ हमारा नहीं छूटा
जीते न अगर साथ तुम्हारा नहीं होता
हैं बेच रहे ख़्वाब चलो कुछ तो खरीदें
पर यूँ पराया ख़्वाब हमारा नहीं होता
गुलशन में महक जाग उठी भोर हुई क्या
अब चाटने से ओस गुजारा नहीं होता
बह वक्त के दरिया में है हर चीज़ बदलती
इक ख्वाबे मुहब्बत है कि बूढ़ा नहीं होता