सलवटें माथे की यारों से छुपानी किस लिये / सूरज राय 'सूरज'
सलवटें माथे की यारों से छुपानी किस लिये।
आईनों से आईने की बेईमानी किस लिये॥
ऐ मेरी दीवानगी-दीवानगी दीवानगी
साथ में जब तू है तो फिर सावधानी किस लिये॥
नक़्शे-लब जिसपे थे तेरे वह हथेली काट दी
बेवफ़ा जब तू है तो तेरी निशानी किस लिये॥
आज बेटे से बहू ने इसलिये झगड़ा किया
माँ अगर घर में है तो फिर नौकरानी किस लिये॥
दास्तां है गर ख़ुदा तो फिर हक़ीक़त मत लिखो
गर हक़ीक़त वह है तो उसकी कहानी किस लिये
छल कपट जानें न हम जानें तो बस जानें यही
साज़िशें मन में हो तो सादाबयानी किस लिये॥
ऐ सियासत के भिखारी ये तो बतला दे ज़रा
जीभ में पानी हो तो आँखों में पानी किस लिये॥
मेज जितनी भी जगह माँ-बाप को घर में न दी
मेज पर तस्वीर फिर उनकी सजानी किस लिये॥
आज इक मजदूर को ये पूछ कर पीटा गया
नाम बिटिया का बता रक्खा है रानी किस लिये॥
कोई भी "सूरज" ज़मीं तेरी नहीं तो बेवजह
ज़िंदगी भर आसमां की ख़ाक़ छानी किस लिये॥