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सलाखें न टूटें इन आँखों की जानम / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

सलाख़ें न टूटें इन आँखों की जानम।
मेरी क़ैद में तू तेरी क़ैद में हम।

रहें क़ैद दोनों ही जब तक रहे दम।
खड़ा ले के चाबी भले ही रहे ग़म।

तू क्या जाने तेरे बदन का ये रेशम।
मेरी आँख की हर चुभन का है मरहम।

न हों तेरी पहली मुहब्बत, नहीं ग़म।
हों पर आख़िरी प्यार केवल हमीं हम।

बने हर नदी अंत में ख़ुद समंदर,
नहीं गर यहाँ तो वहाँ होगा संगम।