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सलीब—ए—रन्ज है इस दहर में वफ़ा के लिए / सुरेश चन्द्र शौक़
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सलीब—ए—रन्ज है इस दहर में वफ़ा के लिए
सज़ा है कितनी कड़ी और किस ख़ता के लिए
ख़ुदा परस्तो ! बशर की भी कोई बात करो
ख़ुदा—ख़ुदा ही न कहते रहो ख़ुदा के लिए
ये ज़िन्दगी है कि ज़िन्दाँ की चार—दीवारी
क़दम —क़दम पे सलासिल हैं दस्तो—पा के लिए
छ्टे न अब भी अँधेरा तो बदनसीबी है
जला दिए हैं लहू के दिये ज़िया के लिए
मिटा दो हमको मगर वक़्त के ख़ुदावन्दो
हमारे होंट खुलेंगे न इल्तिज़ा के लिए.
सलीब—ए—रंज=दुख रूपी सूली;दहर=दिनिया;ख़ता= अपराध; ख़ुदापरस्त= परमात्मा को पूजने वाले; ज़िन्दाँ—क़ैदख़ाना; सलासिल=ज़ंजीर;दस्तो—पा=हाथ पैर;ज़िया=रौशनी;इल्तिजा=निवेदन