भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सलीब / अपर्णा भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यहाँ समानांतर दो नारियाँ हैं एक हम स्वयं और दूसरी ये सलीब

जब भी सलीब देखती हूँ
पूछती हूँ
कुछ दुखता है क्या ?
वह चुप रहती है
ओठ काटकर
बस अपनी पीठ पर देखने देती है

मसीहा ...
तब जी करता है
उसे झिंझोड़कर पूछूँ
क्यों तेरी औरत
हर बार चुप रह जाती है सलीब ?

तब मूक वह
मेरी निगाहें पकड़ घुमा देती है
और कीलों का स्पर्श
दहला देता है मेरा वजूद
कुछ ठुक जाता है भीतर ।
  
मेरी आँखें सहसा मिल जाती हैं
मसीहा से ..
वह मेरे गर्भ में रिसता है
और पूरी सलीब जन्म लेती है
मैं उसका बदन टटोलती हूँ
हाथ पैर
मुँह-माथा..
अभी चूमना शेष है
कि ममता पर रख देता है कोई
कंटीला ताज
और मसीहा मुसकराता है..

सलीब की बाहें
मेरा स्पर्श करती हैं
मैं सिहरकर ठोस हो गयी हूँ -
एक सूली
जिस पर छह बार अभियोग चलता है
और एक शरीर सौंप दिया जाता है
जिसने थक्का जमे खून के
बैंगनी कपड़े पहने हैं

कुछ मुझमें भी जम जाता है
ठंडा , बरफ़ , निस्पंद
फिर मैं सुनती हूँ
प्रेक्षागृह में
नेपथ्य से
वह चीख़ता है - "पिता मेरी आत्मा स्वीकार कर"

आकाश तीन घंटे तक मौन है
अँधेरी गुफा में कैद
दिशाएँ निस्तब्ध
कोई मुझे कुचल रहा है..

कुचल रहा है
क्षरण... क्षरण ..
आह ! मेरे प्रेम का मसीहा
सलीब पर टंगा है ।

और मेरी कातरता चुप !
 
सलीब नारी है, मसीहा प्रेम - यहाँ मसीहा का trial दिखाया गया है । छह बार trial किया गया - तीन बार यहूदियों के सरदार ने और तीन बार रोमनों ने । अंत में मसीहा के चीख़ने का स्वर है और सूली के बिम्ब से कातरता को दर्शाया है । कविता कीलों पर चल रही है, सलीब पर टंगी है और सूली पर झूल रही है - आशा है मर्म समझना कठिन न होगा ।