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सवालों के जंगल में बच्ची / ओमप्रकाश सारस्वत

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जब भी
राष्ट्रीय समाचारों का
समय होता है
घर के किसी भी कोने से
अचानक प्रकट हो पूछती है
मेरी बच्ची
पापा! आज कितने मारे गये?

आज से कुछ अरसा पहले
जब उसने पहली बार पूछा था यह
तब मैंने उसके प्रश्न को गंभीरता से नहीं लिया था
(सरकार की तरह)
(आज चार साल हो गये हैं
उसे भी ये मृत्यु-समाचार सुनते)

वैसे हैं नहीं समझता
कि उसे जीने के अर्थों
और मरने के अनर्थों के बीच की दो-दुनियाओं में
अंतर पता है
पर उसे इतना अवश्य पता है
कि मरना-मारना ज़रूर कोई बुरी बात होती है।
वह टी.वी. पर खून-सनी लाशों को देख
जब च् च् च् करती है
पता नहीं तब
उसके अन्दर,कौन-सी दुनिया मरती है
मेरी बेटी पूछती है
पापा! यह अमृतसर कहाँ है?
मैं उसे सुनाता हूँ
बेटे मैं वहाँ पढ़ता था।
मैं अपने भविष्य को
अपने वर्तमान के हाथों
शिल्पकार की तरह गढ़ता था

मैंने कुछ साल वहां
पढ़ाया भी
अपने दिनों को
अनन्त तारों भरे आकाश
और रातों को
असंख्य सूर्यमणियों से
सजाया भी

यह जो स्वर्ण मन्दिर है न
इसकी परिक्रमा में मैं
जैसे तू अपनी माँ की गोद में बैठती है
ऐसे बैठता था
मेरा प्रार्थनाशीलमन
गुरूओं की पावन-वाणी के
पवित्रसर में
सश्रद्ध पैठता था

जिस मन्दिर से मैं शांति, सदभाव,प्रेम और सहिष्णुता को
प्रसाद की तरह लाया था
उसे देखो आज
कितनी आहों के धुएं
और आतंकधर्मियों की अतियों ने
संशस्थल बनाया है
पता नहीं बेटे!
किन जहरीले नागों ने
वहाँ का सारा अमृत पी लिया है
बच्ची, नागों का नाम सुनकर
क्षणभर मौन हो बोलती है
पापा!
क्या अमृतसर में
बहुत नाग होते हैं??

मैं कहता हूँ
नहीं बेटे!
तब अमृतसर
धर्म व्यापार,उपकार,मनुहार
सब में सिरमौर था
सच्चे शिष्यों को
सबसे
बड़ा ठौर था

वहाँ हर सिक्ख
हिन्दु था
और हर हिन्दू
सिक्ख

तब एक की खुशी में
दूसरा अनारों की तरह फूटता था
इक-दूजे के दुखों की होली जला
दीवाली में प्रकाश लूटता था

बेटे! ,मैंने अपने जीवन का
सबसे मूल्यवान समय
वहां बिताया है
अपनी जन्मभूमि की तरह
उसकी माटी को
माथे पै लगाया है
वोह देखो बेटे!
जो लोग अपने सिरों पर
कर्मजलों के अत्याचार लादे
अपने सपनों,अपने अपनों
अपने मित्रों से आधे होकर

अपने पसीना-सने खेतों
अपनी साधों-भरी दुकानों
अपनी माँ-जैसी गलियों अपने बाप जैसे गाँवों से
दूर रहे हैं
उनकी व्यथा कौन जानेगा?
अब यह कौन मानेगा!
कि किसी आग लगे जंगल से
निरीह जीवों के दल की तरह
ये देश निकाले पर जा रहे हैं

बेटे! बहुत मुश्किल होता है
उस मिट्टी को छोड़कर जाना
जिससे खून ने रिश्ता बना लिया हो

बच्ची पूछती है
क्या तब वहाँ
आतंकवाद नहीं होता था???
मैं कहता हूँ धीए!
तब वहाँ--- ऐसा समां होता था
कि मज़दूर,मौलवी,गुरू
शिष्य,बाबा,महन्त,फकीर
जो जहाँ होता था
निपट अलमस्त नींद सोता था

मैं उससे अनुनय के स्वर में कहता हूँ
'बेटे! मुझे अब खबरें सुने लेने दो'
बच्ची चुप रह जाती है
पर अपनी मोहक मासूम आँखों में
सैंकड़ों सवालों के
खौफ़नाक जंगल उगा
कहती है
पापा! यह अमृतसर कहाँ हैं?
यह आतंकवाद क्या होता है??
पापा!आज कितने लोग मारे गये????
पापा..........