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सवाल सत्ता की सहभागिता का / पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी

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दोस्त! अख़बारों से मिल रहे
हत्या बलात्कार और आगजनी के समाचार
घर-घुसा दूरदर्शन इन घटनाओं पर
करता नहीं तनिक भी विचार
हाँ आँखों के अँधेरे में उगा देता है कल्पवृक्ष
कामधेनु बाँधकर परोसता है स्वादिष्ट व्यंजन
धॅंसी-आँखों फटी-एड़ी वालों के पास नहीं कोई मंजन या
'गंगा से नहाना तो दिन बने सुहाना' का विज्ञापनी सपना
जिन्हें न मिल सका पीने को पानी
सिर छुपाने को घर अपना
धर्म के फ़तवे महज़ कंकाल
धर्मनिरपेक्षता के बहाने मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे
रोज़ ही बजाते रहते व्यर्थ अपने-अपने गाल

दोस्त! तुम अगर बैठे रहे
बुज़दिलों की भीड़ बनकर
इस देश में इन्क़लाब कभी न आ पाएगा
पट्टियाँ बाँधे रखोगे अगर आँख पर
भ्रष्टाचार देश को निगल जाएगा
इसीलिए कहता हूँ—
दोस्त! विस्तार करो
गुढ़ो गुनो जुटो
समय को देखो
कब तक सदियों के आर-पार
झूमते रहोगे निर्विकार महुए की मस्ती में
आग लगे चाहे घर जले
ग़ाफ़िल रहोगे गीत-संगीत की बस्ती में!

दोस्त! मुखौटे न लगाओ
कथनी-करनी की दूरी मिटाओ
चौंको मत
ये किसी और से नहीं
कह रहा हूँ मैं स्वयं अपने से, अपनों से
मैं अपने आप जाग उठता-सा सहमा-सा
याद आती अलस्सुबह चाय पर मँडराती भाप
याद आ गये वे दिन वे लोग
नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ लगाते बहुत-से नारे
देखते ही देखते
परिन्दों की तरह लुट गये, पिट गये
हुए पिंजरे में क़ैद
'अप्प दीपो भव' रह गया
इक चीख़ बनकर
जाने किसके इन्तज़ार में नाव किनारे लगाकर
बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे—
मेरी जमात के लोग
जबकि
पानी पहुँच चुका है गर्दन तक

दोस्त! तुम सोच रहे होगे
यह आदमी है या खुली किताब
मिलते ही जिससे हुआ मोह-भंग
टूटा ख़यालों का सैलाब
ऐे दोस्त! समय रहते समझो
अब तेल नहीं रहा
ख़ुद को निचोड़े बिना जलेगी नहीं बाती
सत्ता-सम्पत्ति-सम्मान की भी नहीं होगी
भागीदारी
'अप्प दीपो भव' का मन्त्र नहीं होगा—
सम्भव
धरती पर भी नहीं खींच पाएगा कोई—
नक़्शा
बस मेरे दोस्त! याद रखना—
स्वतन्त्रता समानता बन्धुता और सामाजिक न्याय
'है हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार'
हम अनार्य हैं आदिम महान
इसलिए लेकर ही रहेंगे
पुरखों का खोया हुआ सम्मान!