भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सवेरा / श्रीनाथ सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हुआ सबेरा आँखें खोलो,
बुला रहीं हैं चिड़ियाँ बोलो
कहता है पिंजड़े से तोता,
अरे, कौन है अब तक सोता
उठ मेरे नैनों के तारे,
सब के प्यारे राजदुलारे।
आंगन मे कौवे आयें हैं,
लख तो तुझको क्या लाये हैं
कैसी सुंदर घास हरी है,
उसमें कैसी ओस भरी है
मानों हरी बिछी हो धोती,
सिले सैकड़ों जिसमें मोती
तालाबों में कमल गये खिल,
रहे हवा के झोंकों से हिल
भौंरें उन पर घूम रहे हैं,
झूम झूम मुख चूम रहे हैं।
जगीं मछलियाँ जल के भीतर,
बगुले बैठे ध्यान लगा कर
घर से चले नहानेवाले,
जगे पुजारी खुले शिवाले
घाम सुनहला छत पर छाया,
बाबा जी ने शंख बजाया
फूल तोड़ कर लाया माली,
गाय गई चरने हरियाली।
सड़कों पर न रहा सन्नाटा,
नौकर गया पिसाने आटा
इक्के, बग्घी, टमटम, मोटर,
लगे दौड़ने इधर से उधर
हलवाई ने आग जलाई,
बनी जलेबी ताजी भाई
लड़के सब जाते हैं पढ़ने,
लगा ठठेरा लोटा गढ़ने।
चम चम चमक रही सुखदाई,
गमले पर लख तितली आई
जगा रही माँ उठ, आलस तज,
छप्पर पर आ बैठा सूरज