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सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम / अज्ञेय
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सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम।
एक सिहरन, जो मन को रोमांचित कर जाय
एक विकसन, जो मन को रंजित कर जाय
एक समर्पण जो आत्मा को तल्लीनता दे।
अँधेरी रात जागते शिशु की तरह मुस्करा उठे;
दिन हो एक आलोक-द्वार जिस से मुझे जाना है।
(समय मेरा रथ और उल्लास मेरा घोड़ा।)
मेरा जीवन-घास की पत्ती से झूलती हुई यह अयानी ओस-बूँद-
सूर्य की पहली किरण से जगमगा उठे और स्वयं किरणें
विकीरित करने लगे।
मेरा कर्म मेरे गले का जुआ नहीं, वह जोती हुई भूमि बन जाय
जिस में मुझे नया बीज बोना है।
गाते हुए गान
गाते हुए मन्त्र
गाते हुए नाम :
सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम।
दिल्ली, अक्टूबर, 1952'