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सवेरे ज्यों ही खुली आँख मेरी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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सवेरे ज्यों ही खुली आँख मेरी
फूलदानी में देखा गुलाब फूल;
प्रश्न उठा मन में-
युग-युगान्तर के आवर्तन में
सौन्दर्य के परिणाम में जो शक्ति लाई तुम्हें
अपूर्ण और कुत्सित के पीड़न से बचाकर पद पद पर
वह क्या अन्धी है, अथवा अन्यमनस्क है ?
वह भी क्या वैराग्य व्रती साधु सन्यासी सम
सुन्दर असुन्दर में भेद नहीं करती कुछ
उसके क्या केवल है ज्ञान क्रिया, बल-क्रिया,
बोध का क्या वहाँ नहीं कुछ भी काम शेष है ?
कौन कर करके तर्क कहते,
सृष्टि की सभा में तो
सुन्दर और कुत्सित
दोनो ही बैठे हैं समान एक आसन पर
नही बाधा प्रहरी की यहाँ किसी तरह की?
मैं हूं कवि, तर्क नहीं जानता मैं,
मेरी दृष्टि देखती है विश्व को समग्र स्वरूप में-
कोटि-कोटि ग्रह-तारा अनन्त आकाश में
लिये लिये फिरते है विश्व के सौन्दर्य को,
होता नहीं छन्द भंग, सुर भी कही रूकता नहीं,
न विकृति न स्खलन कही;
वो देखो, आकाश में दे रहा दिखाई स्पष्ट
स्तर स्तर फैलाकर पँखड़ियाँ
ज्योतिर्मय विश्वव्यापी
विशाल गुलाब है।

‘उदयन’
प्रभात: 24 नवम्बर