भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सहज खोले अतीन्द्रिय सुगन्ध के केश / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
सहज खोले अतीन्द्रिय सुगंध के केश
टिमकते प्रकाश का पाल ताने प्रकृति
चलती चली जा रही है विस्मरण में
बही हो जैसे किसी की कोई नाव ।