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सहज भाव से प्यार करो / बालस्वरूप राही

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मेरी देहरी पर मत तुम पूजा-दीप धरो
हो सके अगर तो सहज भाव से प्यार करो।

मैं कवि हूँ पर उससे भी पहले मानव हूँ
इसलिए कहीं मज़बूत और कमज़ोर कहीं
मैं कभी डूब जाता असहाय सितारे-सा
मैं कभी उदित होता हूँ बनकर भोर कहीं।

मेरा विश्वास समर्पित है जन-जीवन को
तुम मेरी दुर्बलताएं अंगीकार करो।

मैं कहीं मोड़ देता हूँ दिशा समंदर की
मैं कहीं टूट जाता लाचार कगारे-सा
मेरे जीवन में मरघट का सूनापन है
मन मेरा दहक रहा पर तप्त अंगारे-सा।

मैं बांट रहा हूँ अपनी आग ज़माने में
तुम मुझमें अपनी ज्वाला का संचार करो।

हारी बाहों को मेरा बहुत सहारा है
पर मेरी नाव भंवर में डगमग कांप रही
मैं घर घर में पूनम का चांद उगा आया
मेरे आंगन में मगर अमावस व्याप रही।

मैं हर दीपक को सूर्य बनाकर मानूँगा
तुम मुझमें अपनी किरणों का विस्तार करो।

अधरों में समा गई जड़ता इतना गाया
इतना बरसा अंतर की गागर रीत गई
हो गया भिखारी मैंने इतना दान किया
मैं इतना हारा सारी दुनिया जीत गई।

पूजा, अर्चना उपहार देवताओं का है
तुम मेरा अपनी क्षमता से श्रृंगार करो।

मेरी देहरी पर मत तुम पूजा-दीप धरो
हो सके अगर तो सहज भाव से प्यार करो।