सहपाठी / विनय सौरभ
वह हमारा सहपाठी था
पर यह बात अब दूसरे सहपाठियों को शायद ही याद हो
नवीं के वे दिन थे, जब उसने किसी महीने में स्कूल आना छोड़ दिया
उसके स्कूल छोड़ने को भी नोटिस नहीं किया गया
पिछली बेंच पर छुप-छुपा कर बैठते-लजाते गरीब बच्चों की
सुध कौन लेता है सरकारी स्कूलों में ?
उसके पिता थोड़ी सूखी शक़्ल और हमेशा बढ़ी रहने वाली
खिचड़ी दाढ़ी लिए नोनीहाट के बस स्टॉप पर दिख जाते थे
लकड़ी के कोयले पर पके भूट्टों के लिए गाहक खोजते
बस में बैठी सवारियों को आवाज़ लगाते
एक दिन वह भी दिखा कोयले की आँच तेज़ करता हुआ
उस पर भुट्टे पकाता हुआ
ऐसा करते हुए कुछ महीनों तक वह हमसे नज़रें चुराता रहा
वह दूसरी तरफ़ देखने लग जाता था
अपने परिचितों को सामने पाकर
या किसी पेड़ की ओट में खड़ा हो जाता था
कहा नहीं जा सकता कि उसे सहज होने में कितना वक़्त लगा होगा !
पर अब हमें देखकर धीमे में से मुस्कुरा देता था
इस तरह उसका लजाना धीरे-धीरे कम हुआ !
भुट्टे का मौसम ख़त्म हुआ तो देखा
उसके कन्धे पर भुनी हुई मूंगफलियों और चने वाला झोला था
धीरे-धीरे हम भूल गए कि वह हमारा सहपाठी भी था
उसके जैसे बच्चों को स्कूल आते-जाते कोई याद नहीं रखता
जैसे वे स्कूल जाते ही ना हों
उनके लिए लक्ष्य करने वाली कोई बात
उनकी भंगिमाओं में दिखाई नहीं देती
उनके कपड़े हवाई चप्पल और प्लास्टिक के झोले में
किताबें यह कभी तस्दीक नहीं करते कि वे स्कूल ही जा रहे हैं
वे काम पर भी जाते हुए लग सकते हैं
वे बच्चे ज़मीन पर गिरे हुए सूखे पत्ते की तरह होते हैं
हवा, धूल मिट्टी में मिलकर बिला जाने वाले !
एक ही टोले में घर था हमारा
साथ खेलते बच्चों की स्मृति है
पर उसकी नहीं है !
पिछले दिनों उसका घर दिखा मुझे
एकदम जीर्ण-शीर्ण अवस्था में
अब वहाँ कोई नहीं रहता
एक बड़ा भाई था उसका
देहात की ज़मीन सम्भालने वह उसी ओर लौट गया
पिता के न रहने पर
एक युवा बहन थी जो लम्बी उम्र पारकर अनब्याही थी
पता नहीं, फिर क्या हुआ उसका !
माँ अस्थमा की मरीज़ थी
बेदम कर देने वाली खाँसी की आवाज़ें
बाहर तक आती थीं
बस अड्डे पर पके भुट्टे बेचने वाला उसका बाप
एक बार अस्पताल गया और वहीं मर गया
उसका घर किसी ने ख़रीदा नहीं है
जबकि वह उस जगह पर है, जहाँ उसकी
अच्छी क़ीमत मिल सकती है
नोनीहाट गया हूँ तो एक-दो बार वह मुझे दिखा है
कई जगह से दरक और ढह गए अपने उस घर के
पाँच फ़ीट चौड़े उस बरामदे पर फैले मलबे के बीच बैठा हुआ
जैसे यह कह रहा हो —
यह मेरा ही है
मैं अभी जीवित हूँ और यह मेरा घर है !
इस घर को याद करता हूँ
सामने से गुज़रने पर मूंगफली या चने के भुने जाने की
सुवासित गन्ध बाहर आती थी
वह उसी खुले बरामदे पर बैठा एकदम सुबह-सुबह
मूंगफली और चने की छोटी-बड़ी पुड़िया बाँधता
दिख जाता था अपने भाई-बहन के साथ
सब की कहानियाँ थोड़ी-बहुत बदल जाती हैं —
थोड़ी बहुत ही सही !
पर वह वहीं खड़ा मिला !
उसके लिए सुख का कोई रास्ता
जैसे बना ही नहीं था जीवन में !
वह पचास साल का हो गया है
उसे कोई लड़की नहीं मिली विवाह के लिए
इधर कुछ सालों पहले उसके पैरों में एक गहरा घाव हो गया है
जो अब तक ठीक नहीं हुआ है
वह कहता है कि भागलपुर तक डॉक्टर को दिखाया
मगर कोई फ़ायदा नहीं हुआ !
नोनीहाट में दिख जाने पर
हंसते हुए इशारे से पूछता है मेरा हाल
और दूसरी तरफ़ देखने लग जाता है
उसे किसी भोज में न भी बुलाओ तो वह चला आता है
और अपनी पत्तल लिए कहीं किनारे बैठकर खा लेता है
या चुपचाप लेकर चला जाता है
इधर के गाँव-क़स्बे में अभी इतनी मनुष्यता बची हुई है
कि कोई उसे दूरदूराता नहीं है
हमारे बीच का ही है वह
इतना याद रखा है लोगों ने
सोचता हूँ — घटती जाती सामाजिकता के बीच
यह भी क्या कम है !
किसी के मरने की ख़बर पाते ही
वह सब कुछ छोड़-छाड़ कर शवयात्रा में शामिल हो जाता था
यह उन दिनों की बात है
जब उसके पैर में घाव नहीं हुआ था और वह स्वस्थ था
मूंगफली या चने के भूने जाने की गन्ध
आज जब भी मुझ तक आती है
मुझे उसकी याद हो आती है
और उस धर की याद भी
जब वह अपने भाई बहनों और
माता-पिता के साथ वहाँ रहता था
उसका नाम रमेश था !
अच्छा वाला नाम !
अब ऐसे सब उसे ‘लिट्टी’कहते थे
पर यक़ीन मानिए मैंने उसे कभी ‘लिट्टी’ नहीं कहा
आज इस कविता में भी क्यों कर कहूँगा भला !
“लिट्टी- चोखे” जैसा किसी मनुष्य का नाम
अपमानजनक तो है ही
पर उसने कभी इसका बुरा नहीं माना
वह इसी नाम से पहचाना जाता है अब क़स्बे में
हीनताबोध के बीच जी रहे लोगों में
यह बोध भी नहीं होता कि वह मना ही कर दें
कि यह सब मत कहिए
मेरा नाम ‘लिट्टी’ नहीं ‘रमेश’ है !
जब आप मेरे गाँव- क़स्बे से होकर गुज़रें
और बस की खिड़कियों के पास
गरम पके भुट्टों, मूंगफली या चने के लिए आवाज़ लगाता
थोड़ा चपटे चेहरे वाला, बालों में खूब सरसों का तेल चुपड़े,
खूँटी दाढ़ी लिए कोई दिख जाए
और बहुत सम्भव है कि उसके पास
कोई छड़ी हो सहारे के लिए
समझ लीजिएगा —
वह हमारा सहपाठी रमेश ही है !