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सहपात्र / श्रीनिवास श्रीकांत
Kavita Kosh से
तुम हो चन्द्रमा
देह के सरोवर में प्रतिबिम्बित
मैं हूँ तुम्हारे नेत्रों में
जुगनुओं का टिमटिमाना
चेतना की घाटी में तुम हो
रिमझिम करती बरसात
मैं हूँ आकाश से झूलता
बादलों का चतुरंग
क्षण-क्षण अपने बदलते रूपों में
दृश्यमान
जब तुम होती हो आसपास
मैं होता हूँ अनुपस्थित
हवा के घोड़े पर सवार
तुम आक्षितिज लोप होतीं
दूरस्थ
जब तुम जागती हो
मैं होता हूँ गहन
सुखमय
निद्रा में लीन
जब मैं जगता हूँ
तुम हो जाती हो मुझमें जज़्ब
हम हो रहे निरन्तर
एक-दूसरे में छायांकित
हम क्षण-क्षण पिघल कऱ घुल रहे
एक-दूसरे में
अपने अपने पानी को बदलते
सहपात्र।