सहमा हुआ शहर / सुदर्शन वशिष्ठ
दरवाजे की छोटी आँख से झाँकता
बाहरी दुनिया
बाहर पसरे रहते
सहमे हए साये
दूर-दूर से आता
सर्दियों का शोर
गर्मियों का सन्नाटा।
खड़ा रहता आगंतुक
गेट से बाहर संशय में
कि द्वार खुलेगा या नहीं
वह खड़ा है ऐसे द्वार पर
जहाँ समझा जाता अभ्यागत
चोर उचक्का
भिखारी समझा जाता जासूस
किराएदार कातिल।
बड़े-बड़े डैने फैलाए बैठी कोठोयों में
रहते हैं बीमार बूढ़े
ग्रिल और सलाखों के पंजों में दबे
जिनकी संतानें
स्वच्छन्द उड़ रही समन्दर पार।
गहनों में सजी हैं सुन्दर इमारतें
हरी दूब और फूलों भरी होते हुए
कुछ खिला हुआ नहीं दिखता यहाँ।
लाचार बूढ़े आश्क्त हो चुके
हलांकि बने हैं पहरेदार
जंग लगे बंदूकें झाड़ते
रक्षा कर रहे हैं बंद दरवाजों की
जिनकी दरारों में हवा के साथ
बार-बार घुस आता आतंक।