सहमी-सहमी चुप-चुप बहती रहती हैं / रविकांत अनमोल
सहमी-सहमी चुप-चुप बहती रहती हैं
कैसे-कैसे ज़ुल्म हवाएँ सहती हैं
मेरा क्या है मैं तो इक दीवाना हूँ
तेरी आँखों से क्यूं नदियाँ बहती हैं
हिज्र जुदाई तो हैं बेमतलब बातें
जिन आँखों को बहना है वो बहती हैं
हर प्रेमी इक शाम सलोना हो कि न हो
हर बिरहन में मीरा राधा रहती हैं
कानों को तौफ़ीक़<ref>योग्यता</ref> अगर हो सुनने की
दीवारें भी सौ अफ़साने<ref>कहानियाँ</ref> कहती हैं
तेरी याद के तीरथ पर जब जाता हूँ
गंगा जमुना आँखों से क्यूँ बहती हैं
लब पर चाहे गहरी चुप का ताला हो
तेरी आँखें कुछ-कुछ कहती रहती हैं
मौसम का 'अनमोल' मिज़ाज<ref>स्वभाव</ref> ही ऐसा है
तस्वीरें क्यूं रंग बदलती रहती हैं