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सहमी- सी हिरणी / भावना कुँअर
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चल रही थी
मैं सीधी सच्ची राह
मासूम मन
कोमल -सा ले तन
बढ़ती रही,
सँभलकर पग
धरती रही।
दिखा था अचानक
राहों में मेरी
वो वहशी दरिंदा
लगा बैठा था
जाने कब से घात।
मैं डरी,काँपी
हिरणी -सी सहमी
स्तब्ध थी हुई
पर क्षण भर में
समझ गई
मैं सारे ही हालात।
पंजों को ताने
मैं आगे बढ़ चली
नोंची थी आँखें
खरोंचा था चेहरा
लगता नहीं
अब कोई भी डर
बदला चोला
बन गई शेरनी
भेड़ियों की न
चाल कोई चलेगी
लुप्त हुई वो
मासूम व कोमल
सहमी- सी हिरणी ।