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सहयात्रा के साठ बरस / रामदरश मिश्र

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साथ-साथ चलते जाना कब साठ बरस बीते!

एक हाथ में थी कविता, दूजे में थी रोटी
हम तानते रहे दोनों की लय छोटी-छोटी
चलते रहे सफ़र में हम यों ही खाते-पीते!

जब आया जलजला, पाँव काँपने लगे डर से
बढ़कर थाम लिया हमने इक-दूजे को कर से
कितना कुछ टूटा-फूटा, पर हम न कभी रीते!

छोटे-छोटे सुख-पंछी फड़काते थे पाँखें
छोटे-छोटे सपनों से भर आती थीं आँखें
गिरे-पड़े, कुछ हारे-से भी, पर आख़िर जीते!

ख़ुद के गिरने पर उठकर तुम कितना हँसती थीं
पर मेरी छोटी-सी डगमग तुमको डँसती थी
भर आते थे जीवन-रस से, पल विष-से तीते!

जब-जब दूर हुआ घर से, तनहा हो घबराया
तब-तब लगा मुझे, कोई स्वर तुम जैसा आया-
घबराना मत तनहाई से, मैं तो हूँ मीते!